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आनन्द प्रवचन : भाग ८
आते रहे । अन्त में बड़ा भाई सिंह वसुधर नामक मुनि हुए, १४ पूर्व के अध्येता हुए, तप-संयम में तत्पर रहने से उन्हें अवधिज्ञान और मनःपर्याय ज्ञान एवं आचार्य पद प्राप्त हुआ । वसंत का जीव सर्प बना । ज्ञानी आचार्य वसुधर ने सर्प को बहुशाल वन में जा कर प्रतिबोध दिया। वह भी जातिस्मरण ज्ञान पाकर पूर्वजन्मों का स्मरण करके विरक्त हुआ। उसने अनशन कर लिया। ५ दिन तक अनशन पाल कर वह सौधर्म देवलोक में गया । दोनों ही अन्त में सिद्ध गति में पहुंचेंगे।
सचमुच पारिवारिक बन्धु ऐसा होता है, जो द्रव्य से और भाव से दोनों प्रकार की आपदाओं में बन्धु को साथ देता है । बान्धवों के विभिन्न प्रकार
__यों तो बान्धव का मूल लक्षण एक ही बताया है- "ते बन्धवा जे वसणे हवन्ति" अर्थात्-बान्धव उसे ही जानो जो विपत्ति के समय सहायक बनता है। परन्तु स्थान और क्षेत्र की दृष्टि से परिस्थिति को दृष्टिगत रख कर बान्धवों के कई प्रकार हो जाते हैं जैसे
(१) एक धर्म को मानने वाले स्वधर्मी बन्धुओं के बन्धु (२) एक जाति के लोगों के स्वजाति बन्धु (३) एक राष्ट्र के व्यक्तियों के स्वराष्ट्र बन्धु (४) पिछड़े हुए लोगों के बन्धु (५) पीड़ित मानवों के बन्धु
जैनधर्म में स्वधर्मी-वात्सल्य का बहुत महत्व बताया गया है । यहाँ बताया गया है कि स्वधर्मी भाई सहोदर से भी बढ़कर है। अगर कोई स्वधर्मी बन्धु को विपत्ति में, कष्ट में, या संकट में देखकर आँखमिचौनी करता है, स्वयं सम्पन्न होते हुए भी उसको सहयोग नहीं देता, उसके प्रति स्नेह नहीं रखता, अपने गृहांगण में आये हुए साधर्मी बन्धु के प्रति जिसके हृदय में वात्सल्य नहीं उमड़ता, उसके सम्यत्वसम्यग्दर्शन में सन्देह है । बन्धुओ ! केवल एक दिन जीमणवार (साहमिबच्छल) करके साधर्मी को खिला देना ही, साधर्मी बन्धुता नहीं है, परन्तु किसी प्रकार से, अभाव से या कष्ट से पीड़ित साधर्मी के सच्चे बन्धु बनकर उसे हर प्रकार से मदद करना ही साधर्मी बन्धुता है।
जैनमन्त्री बाहड़ अपने जमाने का अनुपम स्वधर्मी-बन्धु था । उसने बहुत से गरीब बन्धुओं को विपत्ति में सहायता दी और भीमा घी वाले जैसे गरीब साधर्मी को भी समाज में प्रतिष्ठा दिलायी।
आज इस क्षेत्र में मुझे बहुत ही शिथिलता नजर आ रही है। समाज में कई ऐसे स्वधर्मी भाई-बहन पड़े हैं, जिन्हें एक टाइम का खाना भी मुश्किल से नसीब होता है। बहुत से तो बेकार, बेरोजगार एवं बेघरबार बने मारे-मारे फिरते हैं।
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