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सज्जनों का सिद्धान्तनिष्ठ जीवन
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
पिछले जीवन सूत्र 'ते साहुणो जे समयं चरंति' में 'समय' शब्द है, उसके एक अर्थ--'समय' को लेकर पिछला प्रवचन किया गया है। समय का दूसरा अर्थ सिद्धान्त भी होता है। आज मैं सज्जनों के सिद्धान्तनिष्ठ जीवन के सम्बन्ध में चर्चा करूगा। सामान्य व्यक्तियों का सिद्धान्त से फिसलता जीवन
संसार में अधिकांश व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिन्हें जीवन के मूल्यों और आदर्शों का कोई अता-पता नहीं होता। उन्हें यह भी पता नहीं होता कि यह मानव-जीवन हमें क्यों और किसलिए मिला है, इसका उद्देश्य क्या है ? इसे किस ढंग से व्यतीत करना चाहिए, जिससे मानव उच्चता के शिखर पर पहुँच सके । सामान्य व्यक्ति तो खाने-पीने, सोने, कुछ पढ़-लिख लेने और गृहस्थ जीवन अंगीकार करके कुछ बच्चे पैदा कर लेने, कुछ धन कमा लेने और बुढ़ापे में कुछ भगवान् का नाम लेकर अन्त में अपनी देह को छोड़ देने का नाम ही जीवन जीना समझते हैं। वे यह नहीं समझते कि जीवन में जब उतार-चढ़ाव आते हैं, खाने-पीने आदि जीवन की सामान्य प्रवृत्तियाँ करते समय जब विघ्न बाधाएँ आती हैं, अथवा जिस परिवार, समाज, जाति, राष्ट्र या विश्व के साथ उनका सम्बन्ध एक या दूसरे प्रकार से आता है या उनके प्रति कर्तव्य या दायित्व क्या-क्या हैं ? तथा जहाँ स्वार्थ और कर्तव्य अथवा स्वरक्षा और पररक्षा या निजसुख और परसुख में विरोध या संघर्ष पैदा हो, वहाँ क्या करना चाहिए ? किसे प्राथमिकता देनी चाहिए ? साधारण व्यक्ति प्रायः श्रेय और प्रेय दोनों में से श्रेय को छोड़कर प्रेय को अपनाता है, वह परमार्थ के बदले क्षुद्र संकीर्ण स्वार्थ को गले लगाता है। जहाँ भी जीवन जीने से जरा-सी कठिनाई आयी कि साधारण व्यक्ति जीवन के आदर्शों और मूल्यों को छोड़ देता है और पशुता या दानवता के मार्ग पर जा चढ़ता है। बात-बात में वह सिद्धान्तों के मामले में समझौता कर लेता है। वह एकान्त अर्थ और काम के मार्ग पर ही अधिक दौड़ लगाता है, धर्म के उच्च तत्वों या अंगों पर वह दृढ़ नहीं रह सकता। उसे जरा-सा प्रलोभन या भय जीवन के आदर्शों से विचलित कर देता है। वह धर्म का अधिक से अधिक पालन करता है
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