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आनन्द प्रवचन : भाग ८
आखिर मुनि ने एक निरवद्य स्थान में पहुँच कर निवास किया। भक्त लोग मंगल पाठ एवं स्तवन आदि सुनकर चले गए। तब गाली देने वाले ने उन्हें अकेले में पूछा-"महाराज ! आपने निन्दा करनेवाले और प्रशंसा करनेवाले, दोनों को सच्चा कहा इसके पीछे क्या रहस्य है ? मुनि ने शान्त भाव से कहा-"भाई ! तुमने मुझे जितनी गालियाँ दीं, उतनी सब बुराइयाँ मुझ में मौजूद हैं। अगर मैं सारी बुराइयों से छुटकारा पा गया होता, और लायक होता तो मुक्ति नहीं पा गया होता । इस कारण मैं नालायक हूँ। मेरी आत्मा में अभी तक मलिनता है । आत्मा मलिन न होती तो मुझे केवलज्ञान हो जाता। मुझ में अभी तक कई दुर्गुण हैं, इसलिए मैं गन्दा हूँ। भक्तों ने मुझे धन्यवाद दिया । मेरा गुणगान किया, सो वास्तव में वह मेरा गुणगान नहीं था, संयम और साधुता का गुणगान था। वे तप-संयम की प्रशंसा और स्तुति करते थे, मेरी नहीं। संयम और साधुता सदैव प्रशंसनीय और स्तुत्य है। इस प्रकार तुमने मेरे कर्मों को दृष्टिगत रखकर अपने उद्गार प्रगट किये हैं, और उन्होंने साधुता के दृष्टिकोण को अपने समक्ष रखा है। अतः दोनों ही सच्चे हैं ।" मुनि के मुंह से स्पष्टीकरण सुनकर वह गाली देनेवाला उनके चरणों में गिर पड़ा और पश्चात्तापपूर्वक उनसे क्षमा मांगी।
गृहस्थ वेष में भी कई ऐसे साधक होते हैं, जो निन्दा और प्रशंसा में समभाव रखते हैं।
__लाहौर में एक छज्जूराम भक्त था। उसके पास एक व्यापारी का लड़का पढ़ने आया करता था । एक दिन उस लड़के ने शरीर पर कीमती गहने पहने हुए थे। छज्जू भगत ने उसके गहने उतार कर अपने पास रख लिए, क्योंकि उन्होंने सोचा कि रास्ते में कोई उसके गहने छीन ले तो महात्मा सज्जन पुरुष की बदनामी होगी। लड़का घर पहुंचा तो उसकी मां ने पूछा-'बेटा ! गहने कहाँ गए ?" वह बोला-"भक्त जी ने उतार लिए हैं। उसने यह बात दूसरी स्त्री से कही, दूसरी ने तीसरी से। यों बात से बतंगड़ बन गया । सभी कहने लगे--भक्त लुटेरा है, इसकी नीयत खराब है।" यों छज्जू भगत की निन्दा घर-घर में होने लगी। इतने में लड़के का पिता आया तो उसने अपनी पत्नी से सारी बात जानी। वह सीधा भक्त के पास पहुँचा। भक्त ने उन्हें गहने सौंपते हुए कहा- "मैंने लड़के के शरीर पर गहनों से खतरा समझ कर उतार कर रख लिए थे कि आप को सौंप दूंगा और कोई कारण न था। आप इन्हें ले जाइए।" लड़के का पिता गहने लेकर घर आया। उसने कहा-भक्त जी बहुत समझदार और निःस्पृह हैं ।" इस प्रकार बात एक कान से दूसरे कान पहुँचते हुए भक्त की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी। जब भक्त छज्जूराम को अपनी निन्दा और स्तुति की बात मालूम हुई तो उन्होंने दो चुटकियों में राख लेकर उन्हें फेंक दी। लोगों ने इसका रहस्य पूछा तो बोले—“यह निन्दा की चुटकी है तो यह है प्रशंसा की चुटकी । दोनों ही फेंकने लायक हैं । दुनिया के द्वारा की हुई अपनी निन्दा-प्रशंसा पर ध्यान नहीं देना चाहिए। अकसर यह देखा जाता है कि निन्दा की
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