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साधु-जीवन की कसौटी : समता १८१ चलता है । भगवद्गीता में भक्त एवं स्थितप्रज्ञ के लक्षण में बताया गया है'समलोष्ठाश्मकांचनः' वह ढेला पाषाण और स्वर्ण पर समभाव रखता है । श्री आनन्दघनजी ने भी शान्ति की प्राप्ति के लिए यही बताया है
मान-अपमान चित्त सम गणे, सम गणे कनक पाषाण रे । वन्दक-निन्दक सम गणे, इस्यो होय तू जाण रे ॥शा० ६॥ सर्व जगजन्तु ने सम गणे, सम गणे तणमणि भाव रे ।
मुक्ति-संसार बेऊ सम गणे, मुणे भवजल निधिनाव रे ॥शा० १०॥ शान्ति का अभिलाषी साधक सम्मान और अपमान के समय चित्त में सम रहे, सोना और पत्थर दोनों को समान समझे । जब तू इस प्रकार का समभावी हो जाएगा, तभी समझना कि मैं शान्तिपिपासू हैं। जगत के समस्त प्राणियों को आत्मद्रव्य की दृष्टि से समान समझे, तिनका और मणि दोनों को पुदगल की दृष्टि से समान माने, मुक्ति में निवास हो या संसार में, प्रतिबुद्ध (वीतराग) भाव से दोनों को समान समझे । इस प्रकार समतारूप शान्ति वृत्ति को साधक संसार समुद्र तरने के लिए नौका समझे ।
इस प्रकार अमुक-अमुक क्षेत्रों में समता को शान्ति प्राप्ति के लिए अनिवार्य बताया है। तिनका और मणि, सोना और पाषाण दोनों में समभाव की वृत्ति तभी सुदृढ़ हो सकती है जब समत्वसाधक वस्तु-तत्व का गहराई से चिन्तन करता है, और सोना और मणि पर ममता न रखकर समताभाव रखता है। ममता या आसक्ति ही दुःख का कारण है, जब समता या आसक्ति जीवन में ओतप्रोत हो जाती है, तब बहुमूल्य से बहुमूल्य पदार्थ पर के वियोग होने या संयोग न होने पर उसे रंजोगम नहीं होगा। उसके पास गृहस्थजीवन में धनसम्पत्ति आदि रहने पर भी वह उसमें लिप्त, आसक्त या मूर्छित नहीं होगा वह मर्यादित परिग्रह या नाम-मात्र का परिग्रह रखकर जीवन को सुखशान्तिमय बना लेगा।
पंढरपुर में रांका और उसकी पत्नी बांका दोनों स्वेच्छा से गरीबी धारण करके समभावपूर्वक जीवन-यापन करते थे। इनका समभाव इतना सुदृढ़ था कि सोना और मिट्टी दोनों को बराबर समझते थे। एकबार रांका और बांका लकड़ी काट कर जंगल से आ रहे थे, कि रास्ते में अचानक एक सोने की थैली से रांका के पैर का स्पर्श हुआ। रांका ने देखा कि बांका की वृत्ति चलित न हो जाए, इसलिए रांका उस सोने की थैली पर मिट्टी डालने लगा। "अचानक बांका ने देखा तो उसने पूछा "क्या कर रहे हैं ?" यह जो सोने की थैली है, उस पर जरा धूल डाल रहा हूँ, ताकि उसे देखकर तेरा मन चलित न हो" इसलिए मैं उस पर धूल डाल रहा हूँ।" बांका बोली-“वाह ! यह धूल तो है ही, धूल पर धूल का क्या ढकना ?" कितनी समता थी, रांका-बांका में । वे सोने और धूल में कोई अन्तर नहीं समझते थे।
निष्परिग्रहो संत सोना और धूल में समभाव रखते हैं। उनका मन सोना
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