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आनन्द प्रवचन : भाग ८
श्रमण संस्कृति के दो उन्नायक-श्रमण भगवान महावीर एवं तथागत बुद्ध, हुए हैं। दोनों ने जातिपांति के भेदभाव को मिटा कर अपने संघ में जातिसमभाव प्रतिष्ठित कर दिया था। दोनों ने अपने संघ में शूद्रजातीय लोगों को गृहस्थ उपासक और श्रमण बनाये थे। जैनसंघ में हरिकेशी चाण्डाल, मेतार्य भंगी आदि साधु बने थे। यमपाल चाण्डाल, सद्दालपुत्त कुंभार, आदि श्रावक बने थे । बौद्धसंघ में सुनीत और सोपाक दोनों अन्त्यज जातीय भिक्षु थे। इसी प्रकार इजारों शूद्रजातीय गृहस्थ उपासक थे। श्रमण परम्परा जाति समभाव की निष्ठा सूचित करती है ।
___संत एकनाथ ने रनिया महार के यहाँ भोजन स्वीकार किया था। श्री रामानुजाचार्य कावेरी स्नान करके लौटते समय अपना जात्यभिमान मिटाने के लिए शूद्रशिष्य के कंधों पर हाथ रख कर आते थे। जातिभेद को वैदिक, बौद्ध और जैन तीनों धर्मों ने महापाप और धर्म पर कलंक माना है। इसलिए समताचारी साधक में तो जातिसमभाव होना अनिवार्य है।
- इसके बाद है-धर्मसम्प्रदाय-समभाव ! इसका मतलब दूसरे धर्म-सम्प्रदायों के प्रति सहिष्णु, उदार एवं निष्पक्ष बनना है। धर्म-सम्प्रदाय समभाव का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने धर्म-सम्प्रदाय को छोड़ दें या उसकी अच्छी धार्मिक क्रियाओं या नियमोपनियमों का पालन करना छोड़कर दूसरे धर्म-सम्प्रदायों की क्रियाएँ करने लगें या नियम पालने लगें। परन्तु दूसरे धर्मों की अच्छी बातों को अपनाएँ, उनके प्रति सहिष्णु बनें, उनके उत्सवों, त्यौहारों या कार्यक्रमों में भाग लें, उन्हें सहयोग दें, विपत्ति आने पर सहायता दें, दूसरे धर्म के लोगों के साथ भी भाईचारा रखें । धर्मसम्प्रदाय समभाव भी समता का एक विशिष्ट अंग है। आये दिन धर्मसम्प्रदायों की आपस में लड़ाई, संघर्ष प्रहार आदि से कौन-सा धर्मपालन होता है ? कुछ समझ में नहीं आता। अतः मानवता एवं समता के नाते दूसरे धर्म-सम्प्रदायों के प्रति भी समताचारी को निष्पक्ष, उदार एवं सहिष्णु होना चाहिए।
भारत की सीमा पार के एक मुस्लिम सुलतान के राजगुरु मौलवी साहब एक बार मक्का की यात्रा पर जाते हुए गुजरात की सीमा से गुजर रहे थे। उनके साथ बहुत बड़ा दलबल था, धन भी काफी था। कुछ लोगों ने धर्मद्वेष के कारण उन्हें लूटने की तैयारी की। राजा वीर धवल ने भी कहा कि मौलवी को लूट कर उसकी सम्पत्ति का हिन्दू धर्म के कार्यों में उपयोग कर लिया जाए। महामन्त्री तेजपाल को यह बहुत ही अनुचित लगा। धर्मद्वेष के रूप में इस प्रकार के अत्याचार उनके उदात्त जैन संस्कारों के सर्वथा प्रतिकूल थे। महामन्त्री ने राजा वीरधवल से अनुरोध किया कि यह घोर अन्याय होगा। किसी अपराध के बिना किसी को लूटना, सताना या उत्पीड़ित करना धर्म हो ही कैसे सकता है ? यह घोर पाप है। निरपराध को लूटकर उस धन से अपने धर्म का गौरव बढ़ाने की कल्पना माँ के शरीर को बेचकर धन कमाने के समान है।" महामन्त्री ने इस स्पष्ट निवेदन के साथ राजा को इस कुकृत्य
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