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आनन्द प्रवचन : भाग ८
मनोबल को ऊँचा उठाने में सहायक होती हैं। दूसरी ओर मनोदुर्बल मनुष्य को अकमर्क निरुत्साह कर देती हैं, जीवन की आशाओं और उमंगों को धराशायी कर देती हैं । दोनों ही स्थितियों का उत्तरदायी मनुष्य स्वयं होता है। इसमें कठिनाइयों या संकटों आदि का कोई दोष या गुण नहीं है । जब मनुष्य कठिनाइयों की यथार्थता को नहीं समझता, उन्हें जीवन का स्वाभाविक अंग मानकर सहर्ष स्वीकार नहीं करता तो ये ही कठिनाइयाँ अपार दुःख अशान्ति एवं क्लेश का कारण बनती हैं व्यक्ति धर्म से च्युत होकर पाप, वासना या अर्थ काम-भोग के पथ को सरल मानकर चल पड़ता है, जिसमें आगे चलकर भय-आफत और घबराहट अधिक पैदा होती हैं। मनुष्य का मानसिक सन्तुलन बिखर जाता है। उसके धर्मनिष्ठ जीवन में अन्तर्द्वन्द्व पैदा हो जाते हैं। धर्म का कठोर पथ छोड़कर जब मनुष्य सुख सुविधाओं का पथ अपना लेता है तब सुखद परिस्थितियों में मनुष्य अपना-आपा ही भूल जाता है, वह आलसी, अकर्मण्य और अधर्मी बन जाता है। यहाँ तक कि नैतिकता, धर्म और वीतराग परमात्मा के आदर्शों के प्रति भी उदासीन हो जाता है। सुख की मादक मस्ती में किस व्यक्ति के विवेक, बुद्धि, विचारशीलता, सदाचार एवं साहस तिरोहित नहीं हो जाते ? इसीलिए रहीम कवि ने कहा है
रहिमन विपदा हू भली जो थोड़े दिन होय ।
हित-अनहित या जगत में जान परत सब कोय ॥ सुख की नींद में सोया हुआ मनुष्य अपने जीवन के शाश्वत लाभ तथा संसार में अपने कर्तव्य एवं दायित्व को भूल जाता है, दुःख का झटका ही उसे धर्मपालन के प्रति सक्रिय बनाता है । मनुष्य को क्या करना है ? वह इस जगत में क्यों आया है ? उसका क्या कर्तव्य और धर्म है । यह सब प्रेरणा दुःख को मित्र बनाने वाले ही पा सकते हैं। जो मनुष्य दुःख और आफत के समय उद्विग्न हो जाते हैं, रोते, झीकते हैं, अपने भाग्य या परमात्मा को कोसते हैं, अपने साथियों-संसगियों को दोष देते हैं, वे धर्म से विचलित होकर अपने जीवन का समाधान नहीं पाते । धर्म से विचलित होकर ऐसे अज्ञानी मनुष्य अपनी मानसिक शक्तियों, अपने आध्यात्मिक बल को बिलकुल जंग लगा देते हैं। परन्तु सत्त्ववान् पुरुष धर्मपालन के समय आने वाले दुःखों का स्वागत करते हैं, आफतों का आदर करते हैं, विपत्तियों को वरदान मानते है, कठिनाइयों को विकास का कमनीय रसायन समझते हैं। वे ही धर्म पर मजबूती से टिके रहते हैं। सोने के लिए आग का जो महत्त्व है, वह महत्त्व सत्त्वशाली जीवन के लिए धर्मपथ में आने वाली कठिनाइयों का है। सोना जब आग में अच्छी तरह तप लेता है, तभी वह पूर्णतया निखरता है, चमकदमक पाता है, और हर प्रकार से संसार में अपना उचित मूल्य पाता है। इसी प्रकार सत्त्वशाली मानव जब कठिनाइयों और आफतों के बीच से धर्मपालन करता हुआ गुजरता है, तब उसकी बहुत-सी कमियाँ और विकृतियाँ दूर हो जाती हैं। वह धर्म पर अटल रहने से शुद्ध सोने-सा खरा और मूल्यवान हो जाता है। इसके विपरीत दुर्बल मन वाला मानव कठिनाइयों
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