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सत्त्ववान् होते दृढ़धर्मी १६६ ऐसे ही महासत्त्व संसार में अपना नाम अमर कर जाते हैं, अपनी यशःसौरभ को वे दिदिगन्त में फैला देते हैं । हजारों मानवों को उनकी धर्मदृढ़ता युगों-युगों तक प्रेरणा देती रहती हैं। इसीलिए पण्डितराज जगन्नाथ ने कहा
"आपद्गतः खलु महाशयचक्रवर्ती, विस्तारयत्यकृतपूर्वमुदारभावम् । कालागुरुर्दहनमध्यगतः समन्ता
ल्लोकोत्तरं परिमलं प्रकटीकरोति ॥" - "महाशयों में चक्रवर्ती सत्त्वशील पुरुष आफत में पड़ने पर भी अभूतपूर्व उदारभाव फैलाता है। जैसे काला अगर आग में डालने पर भी अपनी लोकोत्तर सुगन्ध चारों ओर फैलाता है, वैसे ही सत्त्वशील महानुभाव भी अपनी लोकोत्तर यशःसौरभ फैलाता है।"
महासत्व अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते ऐसे महासत्त्व दुर्जनों के बीच में भी रहकर अपनी सज्जनता को नहीं छोड़ते। बिरोधियों के बीच भी अपनी उत्तम प्रकृति का परिचय देते हैं। वे तुच्छ स्वार्थियों या अज्ञानियों द्वारा चाहे घोर कष्ट में डाल दिये जाएँ फिर भी वे अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। जैसा कि नीतिकार कहते हैं---
"घृष्टं घृष्टं पुनरपि पुनश्चन्दनश्चारुगन्धः । दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः कांचनं कान्तवर्णम् । छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनः स्वाददं चक्षुदण्डम् ।
प्राणान्तेऽपि प्रकृतिविकृतिर्जायते नोत्तमानाम् ॥" चन्दन को चाहे बार-बार घिसा जाय, वह अपनी श्रेष्ठ सुगन्ध को नहीं छोड़ता, सोने को बार-बार आग में जलाया जाय तो भी वह अपने पीले-चमकीले रंग को नहीं छोड़ता, गन्ने चाहे टुकड़े-टुकड़े कर दिये जाय, वह मधुर स्वाद देना नहीं छोड़ता। सच है, प्राणान्त का अवसर आ जाने पर भी उत्तम पुरुषों के स्वभाव में कोई विकार नहीं आ जाता। अर्थात्-वे प्राणान्त कष्ट आने पर भी अपने मूल स्वभाव को नहीं छोड़ते ।।
___ वास्तव में मूल स्वभाव ही धर्म है। अहिंसा आत्मा का मूल स्वभाव है, इसी प्रकार सत्य, ईमानदारी, देव-गुरु-धर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धा-वफादारी (निष्ठा) शील, अपरिग्रह वृत्ति, दया, क्षमा, सन्तोष, कर्तव्य, सेवा, दायित्व आदि आत्मा के मूल स्वभाव हैं, आत्मा के निजी गुण हैं, स्व-स्वभाव हैं। सत्त्वशील पुरुष इस प्रकार के आत्मस्वभाव रूप-धर्म को कदापि नहीं छोड़ते । एक कवि ने कहा है
सिंहनी मर जाती है, पर घास को खाती नहीं । आग में जल जाए सोना, पर चमक जाती नहीं ॥
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