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आनन्द प्रवचन : भाग ८
नियम आदि पर दृढ़ रहता है । मेरी भावना का यह जीवन मन्त्र उसका सम्बल रहता है
"कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे । लाखों वर्षों तक जीऊँ या मृत्यु आज ही आ जावे ॥ अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने आवे ।
तो भी न्याय मार्ग से मेरा कभी न पद डिगने पावे ॥" परन्तु परिस्थितिदास किस प्रकार फिसल जाता है ? इसे एक उदाहरण से समझिए
एक व्यक्ति ने यह नियम लिया कि मैं आज से कभी शराब नहीं पीऊँगा।' अपनी ओर से वह इस नियम का पालन भी करता है । उसके कुछ दोस्त हैं, जो . शराब पीते हैं, इससे बार-बार आग्रह करते हैं, लेकिन वह कह देता है- "मैंने गुरुजी से नियम लिया है, इसलिए मैं शराब को छू नहीं सकता।" इस प्रकार मित्रों का अनुरोध और शराब का दौर एक सामान्य स्थिति होती है, परिस्थिति नहीं कि जिस पर उस नियमी को विजयी माना जाए । शराब के सम्बन्ध में यह स्थिति परिस्थिति तब बन जाती है, जब किन्हीं अतिथियों, सम्बन्धियों एवं मित्रों की गोष्ठी, उत्सव या विवाह के अवसर पर मदिरा पीने का अनुरोध किया जाए, ऐसे अवसर पर सत्ववान् उस परिस्थिति को पार करके अपने नियम की रक्षा कर लेता है, तो उसे परिस्थितिविजयी माना जाएगा, और अगर किन्हीं कारणों अथवा दुर्बलताओं से प्रेरित होकर वह अपना नियम (शराब न पीने का) भंग कर देता है तो उस सत्वहीन को परिस्थिति का दास ही कहा जाएगा । परिस्थितियों की ऐसी दासता अशोभनीय एवं दुर्बलता का लक्षण है।
सत्ववान व्यक्ति चाहे जैसी परिस्थिति में हो, अपनी दृष्टि धर्म पर मजबूती से टिकाए रखता है, इस कारण उसका मन बलवान् होता है, उसके विचार उसके साथ होते हैं,उसकी भावनाएँ शुभ तथा सृजनात्मक होती हैं, अतः उस पर प्रतिकूल परिस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह परिस्थिति पर अवश्य नियंत्रण प्राप्त कर लेता है। वह अपनी मनोभूमि को संघर्ष या विपत्ति के समय पहाड़ की उस चट्टान की तरह धर्म पर दृढ़ तथा अपने अनुकूल बनाये रखता है । जिस पर विपत्ति संकटों या दुःखों के तूफानों या आंधी-पानी का कोई प्रभाव बाहर से भले दृष्टिगोचर हो, मगर अन्तर में उसका प्रवेश बिल्कुल नहीं होता । सत्ववान व्यक्ति की वर्तमान अच्छी या बुरी जैसी भी परिस्थिति है । उसने जानबूझ कर या अनजाने में स्वयं बनाई है, इसके सिवाय उसके उत्पन्न होने का कोई कारण वह नहीं मानता। यही कारण है, कि सत्वशाली पुरुष आने वाले संकटों की शक्ति अपनी प्रतिशोधिका शक्ति से बढ़कर नहीं समझता । उससे अपनी धर्मदृढ़ता की विचार धारा को वह प्रभावित नहीं होने देता। जीवन संग्राम में मित्र मानकर ही वह अपनी जीवनयात्रा धर्म पथ पर अचल, अटल रूप से करता है। जबकि निःसत्व व्यक्ति धर्म को ताक में रखकर मन में सुख
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