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सज्जनों का सिद्धान्तनिष्ठ जीवन १६५ पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि ? पुरुषो ! तुम ही तुम्हारे मित्र हो, वाहर के मित्र को क्यों चाहते हो ?
अपनी शक्ति, क्षमता, सामर्थ्य, प्रामाणिकता और कार्यदक्षता पर विश्वास रखकर ही व्यक्ति सिद्धान्त पर दृढ़ रह सकता है। अगर आप अपनी शक्ति, सामर्थ्य एवं क्षमता को स्वल्प मान लेंगे, अपनी कार्यदक्षता और प्रामाणिकता पर विश्वास नहीं करेंगे तो स्वयं आत्महीनता के शिकार बनेंगे, दूसरों की दृष्टि में भी दुर्बल और असमर्थ सिद्ध होंगे। आत्मविश्वास के बिना आप में आत्मबल नहीं आयेगा और आत्मबल के बिना आप पग-पग पर सिद्धान्त के मामले में शिथिल होंगे एवं समझौता करते रहेंगे। आत्मविश्वास से सिद्धान्त रक्षा के मामले में जो भी कठिनाइयाँ आयेंगी, उन पर आप विजय पाते चलेंगे। एमर्सन ने कहा-आत्मविश्वास सफलता का मुख्य रहस्य (कारण) है।
महात्मा गाँधीजी में गजब का आत्मविश्वास था। तभी तो अंग्रेजों की इतनी बड़ी शक्ति के खिलाफ वे अवेले और निःशस्त्र होकर भिड़ गए। अहिंसकयुद्ध से अंग्रेजों का हृदय हिला दिया। स्वराज्य प्राप्ति उनके आत्म-विश्वास का ही फल था यद्यपि उनके साथ अनेकों लोगों ने इस स्वराज्य में आहुतियाँ दी हैं, परन्तु अगर वे आत्मविश्वास खो देते तो स्वराज्य नहीं मिल सकता था।
सिद्धान्त पथ पर चलते समय वही व्यक्ति स्थिर रह सकता है, जिसमें अदम्य आत्मविश्वास हो। यह संसार नाना प्रकार की विघ्न-बाधाओं, विपत्तियों और विरोधों से भरा है । आत्मविश्वास वास्तव में एक शक्तिशाली जहाज है । जो जीवन यात्री को बिठा कर तथा सिद्धान्तरूपी-रत्न को सुरक्षित रूप से साथ लेकर दुर्लध्य विशाल भवसागर को आसानी से पार कर देता है । सिद्धान्त रक्षा के लिए सबसे बड़ा साधन आत्मविश्वास है। जिसप्रकार हाथ में अनेक शस्त्र होते हुए भी कायर व्यक्ति कोई जौहर नहीं दिखला सकता, उसी प्रकार शरीर, मन, वचन, प्राण, बुद्धि आदि अनेक साधनों के होते हुए भी आत्मविश्वास के बिना मनुष्य सिद्धान्तनिष्ठा का चमत्कार नहीं बता सकता। आत्म-विश्वास का धनी व्यक्ति साधनहीनता की अवस्था में भी अपना पथ प्रशस्त कर लेता है।
___ जो व्यक्ति अकेलेपन के या डूब जाने के भय से गहरे पानी में उतरता ही नहीं वह उस जलाशय को पार कैसे कर सकता है ? जो व्यक्ति इस सोच-विचार में पड़ा रहता है कि क्या करूँ ? कैसे करूँ ? मैं कैसे मंजिल तक पहुँचूंगा, वह कुछ भी नहीं कर पाता । उसका अपने प्रति विश्वास मर जाता है। उसका जीवन भी निष्प्राण-सा हतप्रभ हो जाता है । कोई चेतना या तेज उसमें नहीं रहता । व्यावहारिक कार्य में भी उसके संकल्प अधूरे रहते हैं, पारमार्थिक कार्य में भी। जो संशय में पड़ा रहता है, उससे कोई बड़ा कार्य नहीं हो सकता, वह जो काम प्रारम्भ करता है, उसमें भी असफल रहता है, जिससे उसका रहा सहा विश्वास भी नष्ट हो जाता
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