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आनन्द प्रवचन : भाग ८.
भयंकर विपत्तियों का पहाड़ ही क्यों न टूट पड़े। कविवर प्रकाश की परमात्म भक्ति परक ये पंक्तियाँ सिद्धान्तनिष्ठ जीवन के रहस्य को प्रस्फुटित कर देती हैं। जहाँ 'जगदीश्वर' का नाम आता है, वह हमें सिद्धान्तेश्वर समझना चाहिए
अति निकट विकट संकट का तट सिर पर है। परवाह नहीं, रक्षक जब जगदीश्वर है ॥ध्रव॥ घन घोर घटा वर्षा की लगी सड़ी हो । आँधी प्रचण्ड सर्दी या धूप कड़ी हो ॥ रिपुसेना घर पर घेरा डाल पड़ी हों। मुंह खोल मृत्यु खाने के लिए खड़ी हो । यदि रूठ जाय संसार सकल क्या डर है ? ॥परवाह०॥
चाहे कोई कितने गोले गोली बरसाले । - तलवार तबर बरछी भाले चमकाले। विषधर भुजंग बैठा हो जीभ निकाले ।
चाहे पीछे दौड़ें गज बलिष्ठ मतवाले। यदि टूट जाय सम्बन्ध सकल घर-वर हैं ॥परवाह०॥
चाहे कोई धन-धान्य ग्राम भी लूटे ।
सुत, मात-तात, युवती से नाता टूटे । - सुरदुर्लभ यह मानव जीवन-घर फूटे ।
प्रियवर 'प्रकाश' पर प्रेमपंथ नहीं छूटे ।
यह कथन कवि का कितना ही मृदुकर है ॥परवाह०॥ यह है सज्जनों का सिद्धान्तनिष्ठ जीवन, जिसमें सतत् 'न निश्चितार्थाद् विरमन्ति धीराः' (धीर और निष्ठावान पुरुष निश्चित सिद्धान्त से कभी पीछे नहीं हटते) का स्वर गूंजता रहता है। एक ओर परिवार, समाज, राष्ट्र या विश्व के प्रति कर्तव्य या दायित्व निभाने का प्रश्न हो, और दूसरी ओर अपने या अपनों के स्वार्थ का प्रश्न हो, वहाँ सिद्धान्तनिष्ठ व्यक्ति स्वार्थ को गौण करके परमार्थ और कर्तव्य पथ को अपनाता है, उच्चदायित्व को निभाता है। वह निजसुख और परसुख में विरोध उपस्थित होने पर पर-सुख को ही मुख्यता देता है। नीतिकार की भाषा में सिद्धान्तनिष्ठ व्यक्ति का विवेक सूत्र यह है
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ "कुल के हित के लिए एक व्यक्ति के हित को छोड़े, ग्रामहित के लिए कुलहित छोड़ दे, और जनपद (देश) के हित के लिए ग्रामहित को छोड़े तथा आत्महित के लिए सारी पृथिवी को छोड़ दे।"
अपनी बाह्य रक्षा और पररक्षा दोनों प्रश्न एक साथ उपस्थित होने पर वह
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