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आनन्द प्रवचन : भाग ८
विरोध का सर्वप्रथम मुख्य कारण क्रोध है। मनुष्य जब दूसरों की कही हुई बात पर गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं करता, और उसे एकदम क्रोध होता है। जिसके प्रति क्रोध किया जाता है, वह भी क्रोध करता है। इस प्रकार क्रोध की आग से विरोध की चिनगारी फूटती है। उसमें से कलह, क्लेश, नुक्ताचीनी, शब्दों की मार, उलाहने, आक्षेप आदि पैदा होते हैं जो पाण्डित्य को जलाकर खाक बना देते हैं क्रोध को क्रोध से जीतने का प्रयास करना बड़ा भारी विरोध पैदा करना है । ऐसा करने से मनुष्य का शरीर, मस्तिष्क, हृदय, और आत्मा सभी विरोध से भर जाते हैं और वे विरोध के परमाणु भयंकर कर्मबन्ध के कारण बनते हैं।
किसी से आपकी कोई गलती या हानि हो गई हो तो एकदम उस पर झल्ला उठना, उसे विरोधी- शत्रु बनाना है, इसके बजाय गम्भीरता से जिस कारण वह गलती या हानि हुई, उस पर विचार करके उसे दोष देना चाहिए । गलती करने वाले को क्षमा करने से हृदय साफ रहेगा और परिस्थिति को समझने का अवसर मिलेगा।
दूसरा विरोध का कारण है- अहंकार । मनुष्य जब अहंकार करता है तो वह दूसरों के प्रति घृणा करता है, उन्हें नीचा और अपने को ऊँचा मानता है, अथवा स्वयं को महान् और दूसरों को क्षुद्र मानने लगता है । इनसे जिनको वह नीचा मानता है, उनमें विरोध स्वरूप प्रतिक्रिया पैदा होती है । जो निरहंकार है, नम्र है, वही पण्डित है । जो अहंकार का पुतला है दूसरों से सेवा और सहयोग लेकर भी उनका आभार नहीं मानता, बल्कि उन्हें नीच और घृणित समझता है, वह सच्चा पण्डित नहीं। वह एक जन्म में ही नहीं, जन्म-जन्म में अपनी हानि करता है । हठाग्रह या दुराग्रह भी विरोध का जबर्दस्त कारण है । हठाग्रह का कारण है अहंकार । अपनी मानी हुई बात को असत्य मानकर हठाग्रही पूर्वाग्रहवश जो पकड़ लेता है, उसे झूठ सिद्ध होने पर भी छोड़ता नहीं। इसी पूर्वाग्रह के कारण धर्म-सम्प्रदायों, जातियों या प्रान्तों एवं राष्ट्रों की परस्पर लड़ाइयाँ एवं संघर्ष होते हैं । इस प्रकार के बैर-विरोध से किसी की आत्मा को शान्ति नहीं मिलती। जो सब प्राणियों को आत्मवत् मानता है, उसे ही पण्डित कहा गया है, जो अन्य प्राणियों को अपने से भिन्न मानता है, वह अज्ञानी है। ऐसा अहंकारी अतिस्वार्थी होता है, वह केवल अपने गुण और अपनी विभूतियाँ अपने तक ही सीमित रखता है, बल्कि वह अपने अहंकार की तुष्टि के लिए दूसरे की विशेषताओं और विभूतियों का शोषण करने लगता है । इसलिए अहंकार सारे पापों और विरोधों की जड़ है, जिससे पण्डित को बचना आवश्यक है ।
एक बार प्रयाग में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के सम्मान में एक द्विवेदी मेले का आयोजन हुआ था। उसमें डा० गंगानाथ झा भी आमंत्रित थे। जब झा महोदय आए तो द्विवेदीजी अपने सहज सौजन्यवश उनके चरण स्पर्श के लिए आगे बढ़े। डा० झा तुरन्त पीछे हटे और विनयावनत होकर बोले-“यह क्या अन्याय कर रहे
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