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आनन्द प्रवचन : भाग ८
करने की इच्छा नहीं रखते, जो नष्ट हो गई है, उसकी चिन्ता नहीं करते, आपत्तियाँ आने पर वे घबराते नहीं।
इसी प्रकार पण्डितों के समागम से मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो जाता है । भट्टेन्दुराज ने कहा है
"शून्यमापूर्णतामेति, मृतञ्चामृतायते ।
विपद् सम्पदिवाभाति विद्वज्जन समागमात् ॥" __ विद्वानों के सम्पर्क से शून्यता पूर्णता में सम्पन्न हो जाती है, जो मरा-मरासा है, वह अमर हो जाता है एवं विपदाएँ सम्पदाओं-सी प्रतीत होती हैं।'
विपत्तियाँ आती हैं, परन्तु पण्डित की बुद्धि उसका तुरन्त कोई न कोई उचित हल निकाल लेती है, जिससे विपत्ति-विपत्ति मालूम नहीं होती। चाणक्यनीति में पण्डित की एक खास विशेषता की ओर सकेत किया है
"यस्य कृत्यं न विघ्नंति शीतमुष्णं भयं रतिः। __ समृद्धिरसमृद्धि, स वै पण्डित उच्यते ॥" जिसके किसी भी कार्य में शीत, उष्ण, भय, अनुराग, समृद्धि या असमृद्धि रुकावट नहीं डाल सकती, वही पण्डित कहलाता है । अर्थात्-सर्दी हो या गर्मी, कोई भय या खतरा हो, परिवार आदि में किसी के प्रति अनुराग हो, वैभव अधिक हो या गरीबी हो; पण्डित के कर्तव्यपालन में किसी प्रकार से ये चीजें बाधक या विघ्नकारक नहीं बन सकतीं। वह इन चीजों के रहते भी कर्तव्य का पालन किये बिना नहीं रहता।
__मिथिला के पण्डित गंगाधर शास्त्री जिस विद्यालय में पढ़ते थे, उसमें उनका पुत्र गोविन्द भी पढ़ता था। कभी अनुपस्थित न होने वाला सहृदय छात्र गोविन्द उस दिन नहीं पहुंचा तो सहपाठी छात्रों को कुछ बेचैनी हुई। शास्त्रीजी प्रतिदिन की तरह सायंकाल तक सभी कक्षाओं में उसी तन्मयता, एकाग्रता और माधुर्य के साथ पढ़ाते रहे। उनकी मुखमुद्रा पर कोई भी ऐसा भाव नहीं परिलक्षित होता था कि उन्हें एकबार भी गोविन्द की याद आई हो । विद्यालय की छुट्टी हुई तो एक छात्र ने उत्सुकतावश पूछ ही लिया- ''गुरुजी ! आज गोविन्द पढ़ने नहीं आए, कहीं गये हैं क्या ?"
बड़े ही करुण और शान्त स्वर में शास्त्रीजी ने कहा-"हां, गोविन्द वहाँ चला गया है, जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता।"
गुरुजी के सुपुत्र और अपने गुरु भाई के आकस्मिक निधन का समाचार सुन कर सभी छात्रों के चेहरे उदास हो गए। एक छात्र ने पूछा- "गुरुजी ! सारा दिन बीत गया, आपने हमें पहले क्यों नहीं बताया ?"
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