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धर्म-नियन्त्रित अर्थ और काम
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रूप, स्वास्थ्य, बल वगैरह कुछ न हो, उसे भी धर्म पवित्र बनाकर उच्चता के सिंहासन पर बिठा देता है, तब हमें विचार आता है कि धर्म अगर जीवन में इतना व्यापक है तो वह दिखाई क्यों नहीं देता ? उसका तेज या प्रकाश अथवा चमत्कार कुछ न कुछ तो दिखाई देना चाहिए न ? भूख लगती है, तब वह खाने के काम नहीं आता प्यास लगती है, तब धर्म पीने में काम नहीं आता, ठण्ड लगती है, तब धर्म ओढ़ा नहीं जा सकता, ऋण चुकाना हो तो साहूकार को पैसों के बदले धर्म नहीं दिया जा सकता, व्यवहार में किसी भी वस्तु के विनिमय में धर्म उपयोगी नहीं होता, फिर धर्म की उपयोगिता और महत्ता क्या है ?
___ इस प्रश्न के उत्तर में ज्ञानी पुरुषों का कहना है कि धर्म वृक्ष के मूल की तरह है । मूल फल की तरह खाने के काम नहीं आता, न मूल वृक्ष के दूसरे अंगों की तरह बाहर दिखाई देता है, वह जमीन के अन्दर दबा हुआ, छिपा हुआ रहता है । अगर मूल न होतो वृक्ष में टिके रहने की ताकत नहीं होती। वृक्ष फलित-पुष्पित होते हैं, मीठे फल देते हैं, हरे-भरे होकर पथिक को छाया देते हैं, पक्षियों को बसैरा देते हैं, इन सब बाहर से दिखाई देने वाली क्रियाओं का आधार तो उनका मूल ही है। इसीप्रकार धर्म भी जीवन वृक्ष का मूल है। जीवन में जो कुछ दान दिया जाता है, शील पालन किया जाता है, तपस्या की जाती है, परोपकार के कार्य किये जाते हैं, दूसरों के प्रति मैत्री, करुणा, सेवा, क्षमा, दया आदि का व्यवहार किया जाता है, इन सब क्रियाओं का आधार तो धर्मरूपी मूल है। एक पश्चिम के विचारक T. L. Cuyler के शब्दों में कहूँ तो
Let your religion be seen. Lamps do not talk, but they do shine. A light-house sounds no drum, it beats no gong; yet far over the waters its friendly light is seen by the mariner.
-तुम्हारा धर्म भी दिखाई देना चाहिए । बत्तियाँ बोलती नहीं, लेकिन वे प्रकाश देती हैं । प्रकाश गृह ढोल नहीं पीटते, और न झांझरी ही बजती है, किन्तु दूर-सुदूर समुद्र के पानी में इसकी दोस्तीभरी रोशनी सामुद्रिकनाविकों को दिखाई देती है।
हाँ, तो धर्म भी चाहे बाहर से न दिखाई देता हो, इसका प्रकाश प्रत्येक मानव में किसी न किसी रूप में पड़ता ही हैं । चाहे वह किसी भी देश, वेश, धर्मपरम्परा, जाति या प्रान्त का हो। अगर मनुष्यों में धर्म न होता तो आप और हम यहाँ शान्ति से बैठ नहीं सकते थे। जो राष्ट्र धर्म को अफीम बताते हैं, वे भी सद् धर्म के सत्य, अहिंसा आदि अंगों को मानव जीवन के अनिवार्यरूप से मानते हैं। यह धर्म का ही कारण है कि इतने शासक, राष्ट्र एवं ग्राम, नगर आपस में सौहार्द से रह सकते हैं, विचार विनिमय कर सकते हैं, सहयोग दे-ले सकते हैं। मैत्री का हाथ बढ़ा सकते हैं। इसलिए वैदिक ऋषि ने कहा था
'धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा' धर्म रेसा जगत् का मूलाधार है ।
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