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पण्डित रहते विरोध से दूर १०३
होता है । वे अपने उपदेश में सिद्धान्तों की बहुत ही सूक्ष्म व्याख्या करते हैं परन्तु उनका जीवन उनसे बिलकुल रीता होता है। जिसके पठन और आचरण में या उपदेश और व्यवहार में बहुत ही विरोध है, उसे गौतम ऋषि जी की दृष्टि में पण्डित नहीं कहा जा सकता ।
एक पण्डितजी प्रायः रोजाना बैंगन का साग खाते थे । एक दिन वे अपने उपदेश में बैंगन की बहुत ही निन्दा करने लगे कि "यह बहुत रद्दी साग है, वायुकर्ता है, इसमें उनके अवगुण हैं, इसीलिए तो भगवान् ने इसका मुँह बैंगनी रंग से पोत दिया । सबको इसका त्याग करना चाहिए ।"
संयोगवश पण्डितजी की लड़की भी उपदेश में बैठी हुई थी । उसने जब बैंगन की निन्दा सुनी तो झट दौड़कर घर पहुँची और अपनी माँ से बोली - " माताजी ! आज बैंगन का साग मत बनाना, क्योंकि पिताजी ने बैंगन को त्याज्य बताया है । इसलिए आज वे बैंगन का साग नहीं खायेंगे ।" माँ ने लड़की की बात पर विश्वास करके बैंगन का साग नहीं बनाया। कुछ ही देर बाद पण्डितजी कथा करके घर आए । पण्डितानी ने उनके लिए थाली में भोजन परोसा । भोजन की थाली देखते ही बैंगन के शौकीन पण्डितजी पूछने लगे - " आज बैंगन का साग क्यों नहीं बनाया ? यह कैसा साग बनाया है तुमने ?" पण्डितानी ने तपाक से कहा - " पूछो अपनी विटिया से । इसने आते ही कहा कि आज पिताजी बैंगन नहीं खाएँगे, उन्होंने उपदेश में बैंगन की निन्दा की है ।"
"अरी ! वे तो पोथी के बैंगन थे ! यों अगर हम पोथी में लिखे अनुसार बैंगन छोड़ने लगे तो हमारा गुजारा ही नहीं चलेगा ।"
बन्धुओ ! इसी प्रकार संसार में ऐसे उपदेशक पण्डित बहुत से मिलते हैं, जिनके उपदेश और आचरण में विरोध होता है । इसीलिए रामचरितमानस में कहा है-
" पर - उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचहि ते नर न घनेरे ।"
मैंने एक जगह एक पण्डित को देखा, जो रामायण का विशेषज्ञ और नामी रामायणी था । वह एक चौपाई पर लगभग १८ दिन तक व्याख्यान देता था, परन्तु जब उसके गन्दे आचरण के विषय में सुना तो सोचा, वास्तव में यह केवल नाम का • पण्डित है । इसकी कथनी और करणी में तो राई और पहाड़ जितना अन्तर है । इसीलिए एक अनुभवी विद्वान् ने केवल गाल बजाने वाले पण्डित नामधारियों की कड़ी खबर लेते हुए कहा है
पाठकाः पठितारश्च ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः । सर्वे व्यसनिनो मूर्खाः यः क्रियावान् स पण्डितः ॥ पढ़ाने वाले और पढ़ने वाले तथा जो शास्त्रों का केवल चिन्तन करने वाले
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