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पण्डित रहते विरोध से दूर १११ (जंगली) सामने उस कोने में खड़ा है। पर मेरी प्रार्थना है कि इन चारों को आप कोई दण्ड न दें।
राजा ने जंगली को बुला कर सारी हकीकत पूछी और एक लाख रुपये इनाम दे दिया। इन चारों को प्रत्येक को पाँच-पाँच रुपये देकर विदा किया। फिर श्यामसिंह सिंहासन से उतरे और रामसिंह को छाती से लगा लिया । कहने लगे-"जैसा सुना था, वैसे ही आप निकले । परोपकार के लिए आपने अपनी जान खतरे में डाल दी। मैं सात जन्म में भी आपके चरणरज की समानता नहीं कर सकता। लीजिए, आप अपना राज्य महल और खजाना संभालिए। आप ही इस राज्य के लिए योग्य हैं। मैंने आपकी परीक्षा कर ली।" ।
रामसिंह ने पहले तो बहुत आनाकानी की, लेकिन राजा रामसिंह एवं जनता की आग्रह प्रार्थना पर सेवाभाव से राज्य संचालन का भार स्वीकार किया। गही पर बैठकर अजातशत्रु राजा रामसिंह ने घोषणा की-"शत्रु को कभी मत मारो, उसकी शत्रुता को मारो।"
यह है, विरोधी शत्रु को अविरोधी-मित्र में बदलने का ज्वलन्त उदाहरण । यही वास्तव में पण्डित का यथार्थ लक्षण है जो चलाकर किसी से विरोध नहीं करता, न विरोध के कारण उपस्थित करता हैं, बल्कि विरोध के सामने नहीं झुककर उसे अनुकूलता में ढाल लेता है।
कई बार समाज में संकीर्णवृत्ति के, गतानुगतिक, परम्परा के अन्ध-अनुगामी कूपमण्डूक लोग, ऐसे लोगों का विरोध करते हैं जो, उदारवृत्ति के, सबको अपना मान कर अपनाने वाले, पुराने विकास-घातक, समाज के लिए अहितकर किसी सिद्धान्त-विरोधी युगबाह्य नियमोपनियम परम्परा और रीतिरिवाज को बदलकर प्रगति एवं विकास के नव्यपथ की ओर समाज को ले जाते हैं। ऐसे संकीर्ण स्वार्थवृत्ति के लोग ईर्ष्या, द्वेष या स्वार्थ से प्रेरित होकर ऐसे सज्जन के मार्ग में रोड़ा अटकाते हैं। उसकी मजाक उड़ाते हैं, उसे भला-बुरा कहते हैं। उनके इसप्रकार के विरोधी व्यवहार का विद्वान अहिंसक ढंग से शान्तभाव से प्रतीकार करता है और उन दुर्वत्तिवाले लोगों के विरोध को उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। अपनी सज्जनता और शालीनता वह नहीं छोड़ता। नतीजा यह होता हैं, कुछ ही दिनों में उनका विरोध का बवंडर अपने आप शान्त हो जाता है। वे हार थक कर अपने आप बैठ जाते हैं।
___ काशी के ओरियंटल महाविद्यालय के सभाभवन में पण्डित मदनमोहन मालवीय ने एक सभा का आयोजन किया। सभा में देश के विभिन्न भागों से प्रकाण्ड पण्डितों को आमंत्रित किया था। सभा कार्यवाही के प्रारम्भ में पण्डितजी ने बड़े ही नम्र शब्दों में यह बात रखी कि हरिजन भाई हिन्दू समाज के एक अंग बने रहें, ब्राह्मण उन्हें भी बराबरी का स्थान दें और उनके साथ कोई भी सवर्ण छुआछूत का व्यवहार न करें तो वे भी अपने को सहयोगी मानते रहेंगे, तथा देश को स्वतन्त्र
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