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११४ आनन्द प्रवचन : भाग ८
अपमान से त्रस्त होकर अपने आपे से बाहर होता है, और न ही 'अधजल गगरी छलकत जाय' की तरह अपनी डींग हाँकता है ।
यद्यपि गाँधीजी या मालवीयजी चाहते तो उक्त पण्डितों से शास्त्रार्थ करके युक्तियों से कायल कर सकते थे, परन्तु उन्होंने नम्रतापूर्वक विवाद को शान्त कर दिया, आगे बढ़ा कर वातावरण को विरोधी, क्षुब्ध एवं गर्म नहीं बनाया ।
कई बार शास्त्रों का अध्ययन करनेवालों की दृष्टि संकीर्ण बन जाती है और वे शास्त्रीय पाठों का जब अर्थ करते हैं तो उनमें पूर्वापर विरोध प्रतीत होने लगता है । उनकी संकीर्णदृष्टि इसका ठीक समाधान नहीं कर पाती । फलतः शास्त्रों में पूर्वापर विरोधी बातों के कारण पाठक या श्रोता की श्रद्धा डगमगा जाती है, वह शास्त्र की बातों को असंगत मानने लगता है । इसलिए विरोध से विरत पण्डित के लिए ऐसे पूर्वापर विरोधी दिखाई देने वाले पाठों के सम्बन्ध में कहा गया है
'आषं संदधीत, न तु विघट्टयेत् । "
शास्त्र के ऋषि वाक्यों का परस्पर मेल बिठाए, किन्तु उनका विघटन - खण्डन न करो ।
संक्षेप में, शास्त्र की बातों में जहाँ पूर्वापर विरोध प्रतीत होता हो, वहाँ पण्डित सापेक्ष दृष्टि से उनकी परस्पर संगति बिठाता है । किन्तु उन बातों का विरोध या खण्डन करके लोक श्रद्धा को डगमगाता नहीं ।
पण्डित का जीवन बहुत ही उत्तरदायित्वपूर्ण होता है | चाहे वह बड़ी ही उम्र का हो, अपना दृष्टिकोण अपनी मानवता या अपनी बात किसी पर बलपूर्वक थोपता नहीं, वह जानता है कि ऐसा करने से व्यक्ति गेंद की तरह और अधिक उछलता है तथा सबको अपना मत व्यक्त करने का अधिकार है । यद्यपि कई बार वे मत अपनी भावना के अनुकूल नहीं होते, न हितकर ही होते हैं, फिर भी जो अपने दिल-दिमाग के दरवाजे बन्द करके हठाग्रह पर ही उतर जाता है, उसे समझाना या बलपूर्वक अपनी बात मनवाना टेढ़ी खीर होती है । ऐसे समय में हठधर्मी पर अड़े रहना या दूसरे की कही बात से अपना अपमान समझना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है । पण्डितजन को इतना उदार होना चाहिए कि वह ऐसे उग्र विवाद या जिद्द भरी बहस के अवसरों को हंस कर टाल दिया करे या उनकी उपेक्षा कर दिया करे । उस व्यक्ति को क्षम्य समझना चाहिए, जो अल्प बुद्धि के कारण ऐसी बात कह रहा है या ऐसे काम कर रहा है, जो स्वयं की दृष्टि में अनुचित या अनपेक्षित हो ।
कोई व्यक्ति यह चाहता हो कि मेरे समीपवर्ती सभी मेरी इच्छाओं के अनुगामी बन जाएँ, तो ऐसा होना असम्भव है । भगवान महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण और ईसा के समीपवर्ती सभी उनके मतानुयायी या इच्छानुकूल नहीं बन गए । फिर भी उन्होंने उनके प्रति प्रेम और सहयोग की भावना नहीं छोड़ी। अतः पण्डितजन
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