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पण्डित रहते विरोध से दूर
धर्मप्रेमी बन्धुओ!
संसार में अनेकों कोटि के मानव-जीवन होते हैं. पिछले प्रवचनों में मैं अर्थपरायण, कामपरायण, क्षान्तिपरायण एवं धर्ममर्यादित अर्थ-कामयुक्त जीवन के सम्बन्ध में प्रकाश डाल चुका हूँ। आज एक विशिष्ट कोटि के जीवन के सम्बन्ध में चर्चा करूंगा। वह जीवन है—पाण्डित्ययुक्त जीवन । यह जीवन पहले के जीवनों से उच्चकोटि का है। पण्डित के जीवन का अर्थ है-समझदारी और विवेक के प्रकाश से देदीप्यमान जीवन ।
पण्डित जीवन की उपयोगिता क्यों ? जिस मनुष्य के जीवन में धन प्रचुर मात्रा में हो, सुख के साधन भी बहुत हों, विषयोपभोग की सामग्री भी पर्याप्त हो, धार्मिक नियम, व्रत, तप, जप आदि धर्माचरण भी हो, अर्थ-काम का सेवन भी धर्ममर्यादा में होता हो, उसने व्यावहारिक शिक्षा भी अच्छे ढंग से प्राप्त की हो, उस व्यक्ति का परिवार भी भरा-पूरा हो, लौकिक विद्याओं में भी उसने पाण्डित्य प्राप्त कर लिया हो; इतना होने पर भी उसमें बुद्धि कौशल न हो, विवेक और समझदारी न हो, उसे यथार्थरूप से जीवनयापन करना न आता हो तो उसका जीवन सफल नहीं कहा जा सकता। इसलिए आज के प्रवचन में यह बताया जाएगा कि पण्डित का जीवन किस प्रकार का होना चाहिए?
हमारे शास्त्रों में 'पण्डितमरण' का उल्लेख आता है । पण्डितमरण भी उसी का सफल माना जाता है, जिसका पण्डित जीवन सफल हो । जो अपने जीवन में पण्डित जीवन जी चुका है, समझदारी और विवेक से धर्मयुक्त जीवन व्यतीत कर चुका है, वही अपनी मृत्यु को सफल बना सकता है। मृत्यु के समय वही पूरी समझदारी, विवेक, शान्ति और समाधि के साथ रहकर यहाँ से विदा हो सकता है । अपने शरीर को हँसते-हँसते प्रसन्नतापूर्वक छोड़ सकता है। इस दृष्टि से पण्डित जीवन का कितना महत्व है ? यह आप भलीभाँति समझ सकते हैं।
जिस व्यक्ति के पास धन, साधन, सुख-सामग्री आदि पर्याप्त मात्रा में हों, स्वस्थ शरीर हो, बुद्धि उर्वरा हो, शिक्षा भी अजित कर ली हो, परन्तु इतना पाण्डित्य
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