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धर्म-नियन्त्रित अर्थ और काम
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'धर्मो रक्षति रक्षितः ' सूत्र याद रखें
क्या आप भारतीय संस्कृति का वह सूत्र भूल गए ? जिसमें कहा गया हैधर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः
जो धर्म का नाश कर देता है, धर्म उसे नष्ट कर देता है; किन्तु जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है ।
लाखों वर्षों का अनुभव यह सिखाता है कि धर्म की रक्षा करने से अपनी रक्षा होती है ।
एक प्राचीन उदाहरण लीजिए
विजयपुर नगर के धनश्रेष्ठी जब वीतराग धर्म के सम्मुख हुआ, तब उसकी पत्नी धनश्री के गर्भ रहा । पुत्र जन्म होने पर धूमधाम से जन्ममहोत्सव किया । पुत्र का नाम रखा जिनचन्द्र । धर्मसंस्कारी जिनचन्द्र युवक एक दिन अपने मित्र के साथ खेल रहा था, तभी किसी हितैषी पुरुष ने नीतिशास्त्र की एक बात कही - 'सोलह वर्ष का होने पर जो लड़का अपने पिता की कमाई हुई सम्पत्ति का उपभोग करता है, वह पिता का कर्जदार हो जाता है ।" अतः इस पर दीर्घदृष्टि से विचार कर जिनचन्द्र अपने भाग्य को अजमाने के लिए सिर्फ पहने हुए वस्त्रों के सिवाय और कुछ न लेकर परदेश जाने के लिए घर से चल पड़ा । अनेक गाँवों, नगरों और जंगलों को पार करके वह समुद्र के किनारे आया। वहाँ एक पथिक आया, उसके मुंह समुद्र की निन्दा सुनकर धर्मसंस्कारी गुणग्राही जिनचन्द्र ने उसे कहा - " भाई ! समुद्र में अनेक गुण हैं । वह रत्नों का भंडार है, गम्भीर है, मर्यादावान् है ।" समुद्र के गुणगान सुनकर उस समुद्र के अधिष्ठायक देव ने प्रसन्न होकर जिनचन्द्र को एक-एक करोड़ मूल्य के पाँच रत्न दिये । रत्न पाकर जिनचन्द्र किसी के जहाज में बैठकर ताराद्वीप पहुँचा । वहाँ तारापुर के उद्यान में देवरमण नामक यक्ष के देवालय में उसने पड़ाव डाला । कुछ ही देर बाद उस उद्यान में चार कुमारियाँ कीड़ा करने आईं । उनमें एक थी— भुवनशेष राजा की पुत्री रूपरेखा, दूसरी भुवनतिलक मंत्री की पुत्री रूपनिधि । तीसरी भुवनसुन्दर सार्थवाह की पुत्री रूपरीति थी, और चौथी भुवनचन्द्र सेठ की पुत्री रूपकला थी । चारों परस्पर सहेली थीं। चारों ने एक दिन राजमहल में बैठेबैठे ऐसी मंत्रणा कर ली थी कि हम चारों का एक दूसरे से वियोग न हो इसलिए हम चारों एक ही पति का वरण करेंगी । अपना यह मनोरथ पूर्ण हो, इसके लिए हम उद्यान के देवालय के यक्ष से प्रार्थना करें ।" इसी विचार से आज वे चारों मिल कर आई थीं । परन्तु यक्ष के देवालय में प्रवेश करते ही चारों ने रूपराशि जिनचन्द्र देखा । विस्मय विमुग्ध होकर चारों ने अपने हृदय में जिनचन्द्र को धारण करके यक्ष की पूजा की । जिनचन्द्र भी इन चारों के रूप, सौभाग्य और चातुर्य को देख प्रसन्न हुआ, परन्तु धर्ममर्यादा के अनुसार जब तक विधिवत् पाणिग्रहण न हो जाए, तब तक किसी प्रकार की ऐसी बातचीत करना नीतिधर्म विरुद्ध यों जानकर चुप रहा ।
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