________________
३४
आनन्द प्रवचन : भाग ८
मूर्ति लोभदेव धन के लिए क्रूर से क्रूर कर्म करने से नहीं चूकता था। भद्रसेठ का हिस्सा हजम कर जाने की नीयत से उसने उसे समुद्र में धकेल दिया और सारे धन का स्वयं मालिक बन बैठा ।
लोभ का कटुक फल
भद्रसेठ ज्योंही समुद्र में गिरा जलजन्तु उसे निगल गये । अकाल मृत्यु होने के कारण वह अल्पआयु का व्यन्तर बना। उसने अपने अवधिज्ञान से जानलिया कि लोभदेव ने विश्वास-घात करके उसे समुद्र में धकेल दिया था। उसे लोभदेव पर बहुत क्रोध आया। उसने लोभदेव के वाहनों को चूर-चूर करके अपनी मृत्यु का बदला ले लिया। अभागा लोभदेव भयंकर संकट में पड़ गया। परन्तु उसके पुण्य से उसे वाहनों का एक तख्ता हाथ लग गया । उसे पकड़ कर वह सात दिन तक जीवन और मरण के झूले में झूलता रहा । आँखों में खारा पानी लगने के कारण अत्यन्त जलन होने लगी। गिरता-पड़ता किसी तरह वह तारद्वीप के किनारे आ लगा।
विचित्र था तारद्वीप और वहाँ के निवासी । वे बलि के बकरे की तरह छह महीने तक उसे खूब खिलाते-पिलाते और हृष्ट-पुष्ट बनाते रहे । फिर एक दिन उसका शरीर स्थान-स्थान से चीरकर उसका खून निचोड़ लिया। इस असह्य वेदना से वह छटपटाता, रोता, चिल्लाता, पर वहाँ उसकी पुकार कौन सुनता ? इस जिन्दगी की । अपेक्षा वह मौत को अच्छी मानने लगा, मौत की अपलक प्रतीक्षा करता रहा, पर मौत यों कैसे आती ?
फलतः मौत तो नहीं आई, मगर एक दिन एक भारण्डपक्षी उसे मांसपिण्ड समझकर अपने पंजों में दबाकर ले उठा। वह उड़ता जाता और बीच-बीच में अपनी नुकीली चोंच से उसका मांस भी नोचता जाता । एक अन्य भारण्डपक्षी ने इसे देखा तो वह भी मांस के लोभ से वहाँ आया। दोनों पक्षियों में मासपिण्ड के लिए परस्पर छीना झपटी होने लगी। इस छीनाझपटी में लोभदेव (मांस पिण्ड) नीचे बहते अथाह जल समुद्र में गिर पड़ा। उसके घावों में समुद्र का खारा पानी भर गया। अतः उसकी असह्य वेदना से वह तिलमिला उठा । उसकी वेदना का यहीं अन्त न हुआ। उसके शरीर को बाहर निकालकर चीरा गया, फिर उसमें से रत्न निकाला गया। यह था लोभ का कटुक फल ! कितनी भयंकर दुर्गति हुई लोभदेव की। लेकिन दूसरों से ठगी, धर्तता या बेईमानी से धन-हरण करते समय लोभी मनुष्य का ध्यान इन बुरे परिणामों की ओर जाता ही कहाँ है ? उसकी दृष्टि तो एकमात्र अर्थ पर टिकी रहती है।
ऐसे ही अर्थलोभी धनिकों के लिए ईसामसीह ने कहा था-"सुई के छेद में से होकर ऊँट का निकलना सम्भव हो भी जाए, लेकिन लोभी धनिकों का स्वर्ग के द्वार में प्रवेश करना असम्भव है।"
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org