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बुधजन होते शान्ति-परायण फूल आज हैं, कांटे कल के, शूल आज के फूल बनेंगे। फूल-शूल का भेद मिटा कर, कर कानन से मेल रहा हूँ। नहीं फूल से प्यार, कण्टकों से घृणा न मैंने जानी है ।
___मैंने हार नहीं मानी है । कवि ने सहिष्णु जीवन के सत्य का उद्घाटन कर दिया है !
संस्कृत भाषा में पृथ्वी को 'क्षमा' भी कहते हैं, क्योंकि इस भूमि माता को प्राणी कितना ही रौंदते, पैरों से पीटते हैं, कूटते हैं, खोदते हैं, इस पर मलमूत्र गिराते हैं, अपने शरीर का वजन इस पर डाल देते हैं, फिर भी यह सबको क्षमा करती है, सब कुछ सहन करती है । पृथ्वी ही क्यों, सारी प्रकृति हमें सहिष्णुता का पाठ पढ़ाती है। सर्दी, गर्मी, भूख-प्यास, निद्रा आदि के आवेग प्राकृतिक हैं, जिन्हें इच्छा या अनिच्छा से मनुष्य को सहन करना पड़ता है। अतः इन सब प्रतिकूलताओं को भी स्वेच्छा से सहन करने का अभ्यास करना चाहिए।
वैष्णवधर्म में यह माना जाता है कि 'ईश्वर, भक्त की परीक्षा लेने के लिए ही प्रतिकूलताओं एवं कठिनाइयों को उसके सम्मुख उपस्थित करता है। अतः प्रतिकूलताएँ देखकर घबराएँ नहीं वरन् उन्हें हिम्मत के साथ आनन्दपूर्वक सहन करने की आदत डालें । कठिनाइयों के बीच रहने और संघर्ष झेलने में आनन्द आना चाहिए। कष्ट को प्रभु का प्रसाद मानकर शिरोधार्य करना चाहिए।
एक महात्मा से एक जिज्ञासू ने पूछा-"आप में इतनी सहिष्णता कैसे आई ? मैं आपको वर्षों से सहनशील देख रहा हूँ।" महात्मा ने उत्तर दिया--"जब मैं ऊपर की ओर देखता हूँ तो तब मन में आता है मुझे ऊपर (मोक्ष या परमात्मा) की ओर जाना है, तब यहाँ पर किसी के कलुषित व्यवहार से खिन्न होकर गुस्सा क्यों करूँ ? नीचे की ओर देखता हूँ तो सोचता हूँ, मुझे सोने-बैठने, उठने के लिए थोड़ी-सी जगह की आवश्यकता है, तब संग्रही क्यों बनूं ? आसपास देखता हूँ तो विचार होता है, हजारों ऐसे व्यक्ति हैं, जो मुझसे अधिक दुःखी, चिन्तित और व्यथित हैं, तब मैं क्यों दुःखी बनूं ! अतः इन सबको देखकर मेरे सब आवेश शान्त हो जाते हैं । मैंने इसी प्रकार सहिष्णुता का पाठ सीखा है।"
कोई व्यक्ति आपकी आलोचना या नुक्ताचीनी करता है, आक्षेप करके आपको बदनाम करता है, उस समय अगर आप भी सहिष्णुता छोड़कर आपे से बाहर हो जाएँगे, गाली का जबाव गाली से देंगे तो अशान्ति बढ़ेगी, घटेगी नहीं। इसका सर्वोत्तम उपाय है--चुपचाप सहन करना। एक भद्र महिला ने जब गाँधीजी को लिखा कि महाराष्ट्र की पत्र-पत्रिकाएँ आपके विरुद्ध झूठा प्रचार कर जहर उगल रही हैं।" गांधीजी ने उत्तर दिया--"मैं उनसे अनभिज्ञ नहीं हूँ। पर जैसे वे निन्दा करते हैं, वैसे कई मित्र मेरी प्रशंसा भी करते हैं। फिर निन्दा-प्रशंसा में अच्छा-बुरा मानने की बात ही क्या है ? निन्दा से न तो मैं घटूंगा और न प्रशंसा से बदूंगा। मैं तो
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