________________
धर्म-नियन्त्रित अर्थ और काम
८३
"न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत् ।
अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन् विपर्ययम् ॥ अधर्म करने वाले पापियों को सुखी, धनी और धार्मिकों को दुःखी और निर्धन देखकर भी अधर्म में मन नहीं लगना चाहिए।
कमजोर नींव का सुन्दर महल एक महल की दीवारें बहुत मजबूत हैं, उस पर बहुत ही सुन्दर रंग-रोगन किया हुआ है, उसमें फर्नीचर सजा हुआ है प्रतिदिन महफिल जमती है, किन्तु उसकी नींव कच्ची है, बालू पर टिकी हुई है तो भला बताइए वह सुन्दर महल कितने दिनों तक टिका रह सकेगा? वह एक आँधी का झोंका आते ही धराशायी हो जाएगा। इसीप्रकार हमारे जीवन महल की धनसम्पत्ति रूपी दीवारें बहुत सुदृढ़ हों, उसमें विषय सुखों की खूब ही रंगरेलियाँ होती हों। आप भी रागरंग में खूब मशगूल रहते हों, परन्तु उस जीवन महल की धर्मरूपी नींव कमजोर हो, कमजोर क्या बिलकुल ही कच्ची हो, केवल दिखावे का क्रियाकाण्ड हो, अन्दर पोलमपोल हो तो बताइए धर्म की सुदृढ़ नींव से रहित आपका वह जीवन महल कितने दिन टिकेगा? आप उसमें कितने दिन आनन्द मना सकेंगे? आपका अर्थ का ढाँचा चरमराते ही और काम के साधनरूप शरीर, इन्द्रियाँ, अंगोपांग आदि ढीले पड़ते ही क्या आपका जीवन दुःख और अशान्ति से परिपूर्ण नहीं हो जाएगा? और अकाल में ही वज्रपात सा धक्का आपको नहीं लगेगा ? सचमुच धर्मविहीन जीवन की दशा यही है। धर्मविहीन जीवन या तो धन के पीछे दीवाना होकर लोभी और कंजस बन जाता है, या फिर कामवासना के चक्कर में पड़कर विषय-लम्पट बन जाता है। दोनों ही प्रकार के धर्महीन जीवन बर्बादी के रास्ते पर दौड़ लगाने लगते हैं। उसका जीवन ऐसा घोड़ा बन जाता है, जिसके कोई लगाम नहीं है । ऐसा घोड़ा सवार को या तो ऊजड़ रास्ते में ले जाकर भटका देता है या उसे नीचे गिराकर उसकी हड्डी-पसली चूर-चूर कर देता है । ये दोनों ही परिणाम धर्म के अंकुश से रहित अर्थ और काम का सेवन करने वाले के जीवन में दृष्टिगोचर होते हैं।
धर्म का पलड़ा अर्थ-काम से भारी हो धर्म का पलड़ा अर्थ-काम के पलड़े से वजनदार हो, तभी जीवन सुख शान्तिमय हो सकता है। आपने देखा होगा, भूख के अनुपात में रोटी खाने से ही शान्ति होती है, नींव की गहराई के अनुसार ही मकान बनाया जाता है, रोग के वेग के हिसाब से ही दवा की मात्रा दी जाती है, आय के अनुसार ही व्यय किया जाता है टंकी की ऊँचाई के अनुरूप ही जल ऊँचा चढ़ाया जाता है, इसी प्रकार अर्थ-काम की मात्रा के अनुपात में धर्म की मात्रा हो या धर्म का पलड़ा भारी हो, तभी आत्मा का विकास स्वाभाविकरूप से हो सकेगा।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org