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आनन्द प्रवचन : भाग ५
“A man who puts aside his religion because he is going into society, is like one taking his sohes of because he is about to walk upon thorns."
"जो मनुष्य धर्म को एक ओर ताक में रख देता है, क्योंकि उसे समाज में जाना है, वह उस व्यक्ति की तरह है जो काँटों पर चलने के मौके पर अपने जूते पैरों से निकाल देता है।" धर्मरहित जीवन पाशविक या आसुरी
___ जो व्यक्ति जितना ही स्वार्थी है, जिसकी भावनाएँ संकीर्ण हैं, दूसरों के दुःखदर्द में जिसे अरुचि है, वह केवल अपने ही अर्थ-काम-सेवन के चक्कर में रहता है। यह पशुता का चिह्न है । पशु केवल अपनी ही बात सोचता है। वह तमोगुणी होता है। उसके दिमाग में अपने अर्थ से दूसरों की भलाई करने का या अपनी काम शक्ति से दूसरों से मैत्री करने, दूसरों को सुखी बनाने का विचार ही नहीं आता।
जब यह दुर्भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि दूसरों को हानि पहुँचा कर और उनका अनुचित और अनिष्ट करके भी अपना अर्थ-काम सिद्ध किया जाता है, अथवा बिना ही किसी अपने या दूसरों के लोभ के दूसरों का अहित सोचा या किया जाता है, वहाँ असुरता का चिह्न समझना चाहिए। नरपिशाचों की कुटिल गतिविधियाँ ही ऐसी होती हैं जो छोटे से लाभ के लिए दूसरों का बड़ा से बड़ा अनर्थ करने में नहीं चूकते।
परन्तु धर्मयुक्त अर्थ-काम का सेवन करके जीने वाले व्यक्ति मानवता से युक्त होते हैं। वे दूसरों की सुख-सुविधाओं, उनके उचित अधिकारों का ध्यान रखते हुए ही अपनी सुविधा एवं उन्नति की व्यवस्था करते हैं। इसीलिए जीवनद्रष्टा कहते हैं
"प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः ।
किनु मे पशुभिस्तुल्यं, किनु सत्पुरुषैरिव ॥" मानव को प्रतिदिन प्रभातकाल में अपने चरित्र का अपने बहते हुए जीवन प्रवाह का अवलोकन करना चाहिए कि मेरा जीवन पशु तुल्य या असुरतुल्य है या सत्पुरुषों के जीवन जैसा सात्विक एवं निर्मल है ? सच्ची आयु का प्रारम्भ धर्माचरण के बाद से
मनुष्य की आयु जीवन द्रष्टाओं की दृष्टि में तब तक गौण है, वास्तविक आयु तो तभी गिनी जाती है, जब जीवन में धर्ममर्यादित अर्थ काम का प्रारम्भ हो । उससे पहले की आयु पाशविक जीवन की या आसुरी जीवन की समझी जाती है ।
एक युवक सन्त किसी गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिए पहुंचे। घर का मुखिया एक बूढ़ा अन्दर ही बैठा अपना हिसाब-किताब कर रहा था। उसे कोई मतलब नहीं
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