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धर्म-नियन्त्रित अर्थ और काम
नागासाकी पर बम वर्षा करके विज्ञान ने असंख्य प्राणियों का संहार कर दिया, इसका कारण है-धर्म के नियन्त्रण से बाहर हो जाना । अगर विज्ञान पर धर्म का अंकुश रहे तो संसार में स्वर्ग उतर सकता है ।
सुरक्षा और सुख शान्ति : अर्थ काम से या धर्म से ?
प्रत्येक व्यक्ति की सुख शान्तिपूर्वक जीने की इच्छा होती है । इसमें दो तत्त्व मिश्रित हैं - एक जीना और दूसरा है - सुख-शान्ति प्राप्त करना । जीने का मतलब है - अपने अस्तित्व की रक्षा करना और सुख-शान्ति का मतलब है - अपनी अभिलाषाओं और कामनाओं की पूर्ति करना । इन दोनों तत्त्वों की पूर्ति के लिए साधारण अदूरदर्शी मानव दो चीजें अपनाता रहा है । वे हैं— अर्थ और काम। वह सोचता है— अर्थ होगा तो मेरी जिंदगी की रक्षा हो सकेगी, और काम होगा तो — मुझे सुख शान्ति मिलेगी। परन्तु गम्भीरता से विचार करने पर ये दोनों ही पुरुषार्थ - अर्थ और काम आगे चलकर मनुष्य को धोखा देते हैं। आराम देह जीवन की सुविधाएँ सुख-शान्ति का कारण नहीं है, अर्थ से शान्ति प्राप्त होने की बात विवेकहीन सोचता है; बल्कि निर्विघ्न तथा निर्द्वन्द्व जीवन प्रवाह ही सुख-शान्ति का हेतु है, जिसका कारण धर्म है । इसके विपरीत जो व्यक्ति उद्वेगपूर्ण, चिन्तायुक्त एवं अस्वाभाविक जीवन यापन करता है, वह दुःखी तथा अशान्त रहता है । विविध प्रकार के कष्ट एवं क्लेश उसे घेरे रहते हैं । ऐसा व्यक्ति एक क्षण के सुखचैन के लिए तरसता है । कभी उसे शारीरिक व्याधियाँ सताती हैं तो कभी वह मानसिक क्लेशों से पीड़ित रहता है ।
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एक बार भारतवर्ष के एक धनाढ्य व्यक्ति मुझे मिले । वे कुछ ही अर्से पहले अफ्रीका से काफी पैसा कमा कर लौटे थे । उनकी बातचीत से मुझे लगा कि वे अशान्त और दुःखी हैं। मैं उनके दुःख का कारण भांप नहीं सका, इसलिए पूछा"सेठजी ! आप तो अफ्रीका से बहुत अच्छी कमाई करके आए हैं, फिर यों निराश क्यों दिखाई दे रहे हैं ?"
उन्होंने कहा—बेशक, महाराजश्री ! मैं बहुत अच्छी कमाई करके आया हूँ । परन्तु धन का ढेर होने मात्र से थोड़े ही सुखशान्ति मिल जाती है ? पैसों से सुख सुविधा के साधन जुटाए जा सकते हैं, अच्छा खाया-पीया जा सकता है, परन्तु सुख तो तब मिलता है, जब मन में शान्ति हो, शरीर और मन स्वस्थ हो, घर का वातावरण खुशनुमा हो, इसलिए मेरी तो यह धारणा पक्की बन गई है कि धन से केवल धन से सुखशान्ति नहीं मिल सकती ।"
मैंने कहा - " लोग तो पैसे के पीछे इतना दूर-दूर भागते फिरते हैं, पैसे को परमेश्वर से भी बढ़कर महत्त्व देते हैं, ऐसा क्यों ?"
अपने हृदय की भाप निकाले हुए वे बोले – अजी महाराज ! इस पैसे ने तो सुख और शान्ति के बदले दुःख और आफत खड़ी कर दी है । जब मेरे पास पैसा नहीं
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