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धर्म-नियन्त्रित अर्थ और काम ७६ पुरुषार्थ करना चाहिए ऐसी स्थिति में धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों की क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं-यद्यपि साधु और गृहस्थ दोनों ही साधक हैं, दोनों मोक्ष पुरुषार्थ को ही परमार्थ और परमतत्त्व मानते हैं। दोनों के लिए प्राप्तव्य और अन्तिम लक्ष्य मोक्ष ही है। परन्तु दोनों प्रकार के साधकों की भूमिका में बहुत अन्तर है। पंचमहाव्रती साधु उच्चकोटि का साधक है, यद्यपि वह सम्यग्दर्शन,-सम्यग्ज्ञान-सम्यक् चारित्र रूप मोक्षमार्ग को जानता है, मोक्ष को परमार्थरूप से पहचानता है, तथापि हीनसत्त्व एवं अल्पशक्ति के कारण वह उसमें पूर्णतया पुरुषार्थ नहीं कर सकता। वह रत्नत्रय रूप धर्म का पूर्णरूप से आचरण नहीं कर सकता । सांसारिक पदार्थों को वह असार समझाता है. कामभोगों के भी क्षणिक स्वरूप को समझता है कि ये जीवको उन्मार्ग में ले जाते हैं, इसका परिणाम बहुत ही कटु एवं भयंकर है। परन्तु पूर्वकुसंस्करवश विषयों के माधुर्य, इन्द्रियों के चापल्य, मोहकर्म के प्राबल्य के कारण वह अर्थ-काम दोनों पुरुषार्थों का सेवन करता है, परन्तु करता है धर्म से अविरुद्ध अर्थ काम का। यही कारण है कि वह निर्ग्रन्थमुनियों के योग्य महाव्रतों को स्वीकार नहीं कर सका, मुनिदीक्षा नहीं ले सका, उसने गृहस्थजीवन में ही रहकर सम्यग्दृष्टि, जीव-अजीव आदि तत्त्वों को एवं वीतराग वचनों को जान लिए हैं, यथाशक्ति श्रावकव्रतों को भी अंगीकार करता है । तात्पर्य यह है कि वह उतने ही और उन्हीं अर्थ-कामों का सेवन करता है, जो धर्म से विरुद्ध न हो। उसके जीवन में अर्थ और काम दोनों पुरुषार्थ धर्म से संयत रहते हैं, उसमें तीनों पुरुषार्थ मिलेजुले रहते है। इसीलिए गौतमकुलक में कहा गया है ।
'मिस्सा नरा तिन्निवि आयरंति' मिश्र मानव तीनों (पुरुषार्थों) का आचरण करते हैं। मिश्र मानव का अर्थ है जो एकान्त रूप से अर्थार्थी भी नहीं हैं, न एकान्त रूप से कामार्थी हैं और न सर्वथा धर्मार्थी (क्षमार्थी) हे क्षान्ति धर्म का मुख्य कारण होने से क्षान्ति शब्द को यहाँ धर्म के अर्थ में समझना चाहिए ।
महाव्रती साधु, चूंकि घर, परिवार; जाति, समाज; राष्ट्र आदि से सम्बन्ध तोड़कर विश्वकुटुम्बी बन चुका है । वह एकाकी होकर आत्मसाधना के पथ पर बढ़ा है, वहाँ उस पर न तो कुटुम्ब, परिवार, या पत्नी-बालकों की कोई जिम्मेवारी है, और न ही समाज एवं राष्ट्र के आर्थिक या औद्योगिक विकास या अर्थोपार्जन या आजीविका के लिए उद्यम की कोई चिन्ता है। इसलिए उसका पथ धर्म से ही सीधा मोक्ष की दिशा में बढ़ता चला जाता है। इसके विपरीत गृहस्थ अभी अपने घर की जिम्मेवारी लेकर बैठा है, अपने परिवार के भरणपोषण का दायित्व लेकर बैठा है, जाति, समाज एवं राष्ट्र की भी अमुक जिम्मेवारियाँ लेकर चला है, इसलिए उसके समक्ष धर्म के साथ ही अर्थ और काम का क्षेत्र भी आता है । अर्थ पुरुषार्थ के बिना उसके व परिवार आदि के जीवन की आवश्यकताएं पूर्ण नहीं हो
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