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आनन्द प्रवचन : भाग ८.
सकतीं और काम पुरुषार्थ के बिना संसार की, परिवार एवं समाज की वृद्धि नहीं होती । गृहस्थ को अपने वंश एवं परिवार की परम्परा भी चलानी होती है। इनके लिए अर्थ और काम दोनों ही उसके जीवन में आवश्यक रूप में रहते हैं। इसीलिए आचार्यों ने गृहस्थ जीवन में धर्म के साथ अर्थ एवं काम पुरुषार्थ को क्षम्य माना है। योगशास्त्र में निर्दिष्ट मार्गानुसारी के ३५ गुणों में से एक गुण यह भी बताया है
_ 'अन्योऽन्याप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपि साधयेत् ।' 'मार्गानुसारी गृहस्थ परस्पर अविरोधी भाव से त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) की साधना करे।'
तात्पर्य यह है कि गृहस्थ अवसर आने पर धनोपार्जन भी करता है, यथावसर विषय-सेवन भी करता है, परन्तु करता है, वह धर्म-मर्यादा में रहकर । गृहस्थ धर्म की जो मर्यादाएँ है, जो नैतिक सीमाएँ है, आचार-विचार की जो परम्पराएँ हैं, उनका उल्लंघन करके वह अर्थ और काम का सेवन नहीं करता। वह अपने जीवन में जो भी प्रवृत्ति करता है, वह धर्म मर्यादा के प्रकाश में ही करता है, यथावसर वह जब धर्मसाधना करता है, तब पूर्णरूप से धर्म पुरुषार्थ का सेवन भी करता है, उस दौरान वह अर्थ और काम से बिलकुल अछूता रहता है । उसकी प्रकृति जिज्ञासु, भद्रिक एवं मुमुक्षु होती है। उसमें दया, क्षमा, करुणा, सेवा, सरलता, कोमलता एवं नम्रता आदि गुण होते हैं। लोभ से उसका चित्त सराबोर नहीं रहता। दान, शील, तप और भाव धर्म के इन चोरों अंगों में वह रुचि रखता है, प्रयत्न भी करता है। ऐसे गृहस्थ समाज और राष्ट्र में धर्मात्मा और मान्य होते हैं । परन्तु गृहस्थ जीवन के दायित्वों की अमुक विवशताओं के कारण वह सहसा पूर्णरूप से अर्थ और काम का परित्याग नहीं कर पाता। गृहस्थ श्रावक के तीन मनोरथों के अनुसार वह अर्थ-काम और तत्सम्बन्धित आरम्भ का सर्वथा त्याग करने की शुभ भावना अवश्य करता है। दर्शवकालिक सूत्र की नियुक्ति (२६४) में महान् श्रुतधर आचार्य भद्रबाहु ने संयम और विवेक के साथ अर्थ और काम को जिन प्रवचन में स्वीकार किया है
जिणवयणम्मि परिणए, ... .... अवत्थविहि आण ठाणओ धम्मो। ..
सच्छासयप्पओगो अत्यो,
• विसंमओ कामो ॥" अपनी भूमिका के योग्य विहित धर्म का अनुष्ठान, स्वच्छ (पवित्र) आशय के साथ प्रयोग (अजित और विसर्जित) हुआ अर्थ और मर्यादा के अनुसार स्वीकृत (सेवित) काम-ये तीनों ही जिन वचन में परस्पर अविरोधी हैं।
___ कई लोग कह देते हैं कि जैनधर्म में तो अर्थ और काम पुरुषार्थ को कोई स्थान नहीं है; परन्तु वे उपासकदशांगसूत्र को उठाकर देखें तो उन्हें यह स्पष्ट प्रतीत हो जाएगा कि गृहस्थ श्रमणोपासकों ने अपने जीवन में किस प्रकार अर्थ और
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