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विषयानुक्रम
गाथा संख्या विषय
द्रव्यपरिमंथ मंथिक अर्थात् मन्थान के समान।
साधु-समाचार भी परिमंथ से विनष्ट। ६३१७,६३१८ कौन सा परिमंथ किसका? उसका निर्देश। ६३१९,६३२० कौत्कुचिक के तीन प्रकार। उनका अर्थ और
उनसे आने वाला प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि
दोष।
६३२१,६३२२ स्थान कौत्कुचिक का स्वरूप तथा उससे लगने
वाली आत्म तथा संयमविराधना आदि दोष। ६३२३ शरीर कौत्कुचिक का स्वरूप। ६३२४,२४२५ भाषा कौत्कुचिक का स्वरूप। उससे होने वाले
दोष। तद्विषयक श्रेष्ठी का दृष्टान्त। ६३२६ पूर्व उल्लिखित मृत तथा सुप्त मुनि का दृष्टान्त। ६३२७,६३२८ मौखरिक का स्वरूप तथा उससे निष्पन्न दोष
और प्रायश्चित्त। तद्संबद्ध लेखहारक का
दृष्टान्त। ६३२९-६३३१ चक्षु लोलुप का स्वरूप तथा उससे लगने वाले
दोष। ६३३२ तितिणिक का स्वरूप तथा इच्छालोभ का अर्थ
तद्विषयक प्रायश्चित्त और दोष। ६३३३,६३३४ निदान करने के दोष तथा उनका वर्जन। ६३३५-६३४२ साध्वाचार के छह परिमंथ से संबद्ध अपवाद
आदि की विवेचना। ६३४३ निदान में अपवाद नहीं होने का कारण। ६३४४ निदान करने से भववृद्धि। ६३४५ दरिद्र के भव की वांछा करने वालों के लिए
बहुमूल्य रत्न को अल्पमूल्य में बेचने का
उदाहरण। ६३४६ मुक्त कौन होता है? ६३४७ बोधि प्राप्ति का हेतु क्या है? ६३४८ कर्मबंध का कारण क्या है?
गाथा संख्या विषय ६३५५ कल्प के प्रकार की तरह स्थिति के प्रकार तथा
स्थिति और मर्यादा की एकार्थता। ६३५६
प्रतिष्ठा आदि आठ पदों की एकार्थकता तथा
स्थिति के तीन विशेष रूप। ६३५७ षड्विध कल्पस्थिति का प्रतिपादन। ६३५८,६३५९ सामायिक कल्पस्थिति का निरूपण। वह कितने
स्थानों में स्थित, अस्थित और कितने स्थानों में
प्रतिष्ठित हैं? ६२६० पहली कल्पस्थिति कितने स्थानों में स्थित और
कितने में अस्थित। दूसरी कल्पस्थिति कितने स्थानों में स्थित होती है तथा निर्विशमान तथा
निर्विष्ट कल्प का अर्थ। ६३६१ अवस्थित कल्प के चार प्रकार। ६३६२ अनवस्थित कल्प के छह प्रकार | ६३६३,६३६४ छेदोपस्थापनीय संयत की दसस्थानस्थितकल्प
का निरूपण। ६३६५-६३६८ अचेल के दो प्रकार। उनका स्वरूप। ६३६९,६३७० तीर्थंकर परम्परा में अचेलकत्व और सचेलकत्व
का विभाग। वस्त्रों का स्वरूप। ६३७१ उत्कृष्ट उपधि आदि धारण करने के आपवादिक
कारण। ६३७२,६३७३ निरुपहत के द्वारा लिंगभेद करने पर प्रायश्चित्त।
लिंगभेद करने के आपवादिक कारण तथा
लिंगभेद के प्रकार। ६३७४ अन्यलिंग कब और कैसे? ६३७५ आधाकर्म के एकार्थक तथा आधाकर्म के ग्रहण
संबंधी प्रश्न। ६३७६ स्थितकल्प अथवा अस्थितकल्प साधु-साध्वियों
के लिए कौन से भक्तपान की कल्पाकल्पनीयता। ६३७७ आधाकर्म भोजन किसको और कब कल्पनीय? ६३७८ शय्यातर पिंड का प्रतिषेध तथा उसके ग्रहण करने
पर अनेक दोष। ६३७९ शय्यातरपिंड ग्रहण किन कारणों में। ६३८० कृतयोगी मुनि सागारिकपिंड की निषेवना कब करे? ६३८१ राजपिंड विषयक ग्रहण-अग्रहण की सभी दृष्टियों
से मीमांसा। ६३८२ राजा के दो प्रकार तथा उनका स्वरूप। 323
राजा की चतुभंगी तथा उनमें किसका राजपिंड ग्रहणीय ?
सूत्र २०
६३४९ कल्पस्थिति की व्याख्या। ६३५०
निश्चय और व्यवहार नय के आधार पर कल्प
और स्थिति का निरूपण।। ६३५१-६३५३ स्थिति और स्थान, गति और गमन का एकत्व
क्यों? ६३५४ स्थान और स्थिति, गमन और गति में किस
अपेक्षा से नानात्व-अनानात्व?
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