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चौथा उद्देशक
लुंचन करे। एक-एक की परिहानि करते जाएं। शिखा तो सर्वत्र रखें।
५१७९. छिहलिं तु अणिच्छंते, भिक्खुगमादीमतं पऽणिच्छंते । परउत्थियवत्तव्वं, उक्कमदाणं ससमए वि ॥ यदि वे शिखा रखना न चाहे तो सर्वमुंडन कर दें । आसेवनशिक्षा में क्रियाकलाप न सिखाये। ग्रहणशिक्षा में भिक्षुक-बौद्ध मत तथा कपिल आदि के मतों का अध्यापन कराए। यदि वह भी पढ़ना न चाहे तो श्रृंगार काव्य का अध्ययन कराए। यदि वह भी पढ़ना न चाहे तो द्वादशांग में जो परतीर्थिकवक्तव्यतानिबद्ध जो सूत्र हैं उनको पढ़ाए, उनको भी पढ़ाना न चाहे तो स्वसमय की वक्तव्यता को उत्क्रम से पढ़ाए।
५१८०. वीयार - गोयरे थेरसंजुओ रत्ति दूरे तरुणाणं । गाह ममं पि ततो, थेरा गाहेंति जत्तेणं ॥ विचारभूमी या गोचरभूमी में स्थविर मुनि के साथ भेजे । रात्री में तरुण साधुओं से दूर रखें। साधु यदि उसको न पढ़ाएं तो वह कहे- मुझे भी पाठ दें तब स्थविर मुनि उसे प्रयत्नपूर्वक पाठ की वाचना दे।
५१८१. वेरग्गकहा विसयाण जिंदणा उट्ठ- निसियणे गुत्ता । चुक्क - खलिएसु बहुसो, सरोसमिव चोदए तरुणा ॥ जो सूत्र वैराग्यकथाओं में तथा विषय की निन्दा में निबद्ध हों उनको ग्रहण करवाए। उनके सामने उठते हुए या बैठते हुए मुनि पूर्ण गुप्त होकर बैठे। वे यदि समाचारी को विस्मृत कर देते हैं या उसमें स्खलित हो जाते हैं तो तरुण मुनि रोष प्रगट करते हुए उनको अनेक बार टोकते हैं, जिससे कि वे उनमें अनुरक्त न हों।
५१८२. धम्मकहा पाढिज्जति, कयकज्जा वा से धम्ममक्खति । मा हण परं पि लोगं, अणुव्वता दिक्ख नो तुज्झं ॥ उनको धर्मकथा पढ़ाई जाती है। जिस प्रयोजन से वे दीक्षित हुए हैं, उसकी उन्हें स्मृति दिलाते हुए, उस धर्म को उजागर करते हुए कहते हैं- तुम रजोहरण आदि लिंग को धारण करते हुए परभव में बोधि के उपघात करने के लिए तुम प्रयत्न कर रहे हो, इसलिए तुम परलोक का विनाश मत करो। तुम लिंग को छोड़ो और अणुव्रतों को धारण करो । तुम्हारे लिए दीक्षा उपयुक्त नहीं है।
५१८३. सन्नि खरकम्मिओ वा, भेसेति कतो इधेस कंचिक्को । निवसिट्ठे वा दिक्खितो, एतेहिं अणाते पडिसेहो ॥ ५१८४. अज्झाविओ मि एतेहिं चेव पडिसेधो किं वऽधीयं ते ॥
छलियातिकहं कड्डति, कत्थ जती कत्थ छलियाई ॥ जो खरकर्मी - आरक्षक या श्रावक हो, उसे कहे कि
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हमने इस नपुंसक को प्रयोजनवश प्रव्रजित किया था। अब यह लिंग को छोड़ना नहीं चाहता। तुम इसको समझाओ। तब वह आरक्षिक उन साधुओं के मध्य उसे पहचान कर, उसे डराते हुए कहता है - यहां से चले जाओ, अन्यथा मैं मार डालूंगा। तब वह राजा के पास जाकर कहता है-' इन्होंने मुझे दीक्षा दी है। अब मुझे छोड़ रहे हैं।' साधु कहे- 'यह जनता के द्वारा अज्ञात रहकर दीक्षित हुआ है, हमने इसको दीक्षा नहीं दी।' तब वह कहता है'इन्होंने मुझे पढ़ाया है।' तब उसका प्रतिषेध करते हुए कहे- 'हमने क्या पढ़ाया ? तुमने क्या पढ़ा?' तब वह छलित कथा आदि की बात कहे-कहां तो संयमी मुनि और कहां छलितादिकथा ! न हम श्रृंगारकथा पढ़ते हैं और न पढ़ाते हैं।
वेरग्गकरं
५१८५. पुव्वावरसंजुत्तं, सतंतमविरुद्धं । पोराणमद्धमागहभासानियतं Cat सुत्तं ॥ हम पूर्वापर संयुक्त सूत्र की वाचना देते हैं, वैराग्यकारक, अपने सिद्धांत से अविरुद्ध, पौराण - पूर्व पुरुषों तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत, अर्धमागधी भाषा से नियत जो सूत्र हैं, उन्हें पढ़ाते हैं।
५१८६. जे सुत्तगुणा भणिया, तव्विवरीयाइं गाहए पुव्विं । नित्थिन्नकारणाणं, स च्चेव विगिंचणे जयणा ॥ जो सूत्रगुण कथित हैं, उनसे विपरीत सूत्रों को उन्हें पहले पढ़ाया जाता है, अतः प्रयोजन की समाप्ति पर वे ही सूत्र उनके विवेचन- निष्काशन में यतना होती है, कामयाब होते हैं। जिसका व्यवहार से परित्याग नहीं किया जा सकता है, उसके लिए यह विधि है
५१८७. कावालिए सरक्खे, तच्चण्णिय वसभ लिंगरूवेणं । वडुंबगपव्वइए, कायव्व विहीए वोसिरणं ॥ जो लिंगरूप से कापालिक, सरजस्क तथा बौद्ध है उसका वृषभ - गीतार्थ मुनि परित्याग कर देते हैं। यदि वह वडुम्बक - बहुत स्वजनवाला प्रव्राजित है तो उसका निष्काशन विधि से करना चाहिए।
५१८८. निववल्लह बहुपक्खम्मि वा वि
भिन्नकहा ओभट्ठा,
न घडइ इह वच्च परतित्थिं ॥ जो राजवल्लभ हो, बहुपाक्षिक हो तो उसके निष्काशन की यह विधि है - जब वह नपुंसक तरुण भिक्षु को प्रतिसेवना के लिए कहता है, भिन्नकथा करता है तब वह तरुण वृषभ यह कहता है - यहां मुनियों के बीच ऐसा करना उचित नहीं
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तरुणविसहामिणं बिंति ।