Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 403
________________ कथा परिशिष्ट =७३१ दूसरे दिन उसने आचार्य से निवेदन किया-भंते ! यहां से अन्यत्र चलें क्योंकि मेरे परिवार वाले मुझे घर चलने के लिए बाध्य करेंगे। रात्री में आचार्य ने अपने नवदीक्षित के साथ प्रस्थान किया। शिष्य आगे चल रहा था। चलते-चलते अंधकार की सघनता के कारण आचार्य के ठोकर लगी और गिर पड़े। उन्होंने क्रोध के वशीभूत होकर दंडे से शिष्य पर प्रहार किया, सिर फूट गया पर शिष्य ने उस पीड़ा को समभाव से सहा। उसने सोचा, मैं कितना अधम हूं कि अपने शिष्यों के साथ सुखपूर्वक रहने वाले आचार्य को मैंने इस विपत्ति में डाला। वह पवित्र अध्यवसायों की श्रेणी में आगे बढ़ा और केवली बन गया। रात बीती। आचार्य ने रुधिर से अवलिप्त शिष्य के शरीर को देखा। मन ही मन अपने कृत्य के प्रति ग्लानि हुई। शुभ अध्यवसाय के आलोक में स्वयं के कृत्य की निन्दा की और स्वयं भी केवली बन गए। गा. ६१०३ वृ. पृ. १६१२ १४०. रोहा परिवाजिका एक परिवाजिका अरण्य में रहती थी। एक अजा बालक बकरियों को चराने वहीं आता था। एक दिन वह परिवाजिका को देखकर जामुन के वृक्ष पर चढ़ गया और उसने पूछा-शीतल फल दूं या उष्ण? परिव्राजिका ने कहा-उष्ण फल। उसने फल तोड़े और रेत में फेंके। परिवाजिका ने रेत से फल उठाये और फूंक से रेत को साफकर खाने लगी। परिवाजिका ने कहा-उष्ण फल कहां? वह बोला-फल उष्ण नहीं तो फूंक क्यों दे रही हो? फूंक देने से ऐसा ही प्रतीत होता है कि फल उष्ण है। थोड़ी देर बाद पुनः परिव्राजिका कपटपूर्वक बोली-मेरे मातृस्थान पर कांटा लग गया, मेरे बहुत वेदना हो रही है। तुम निकाल सकते हो। वह निकालने के लिए तत्पर हुआ, ध्यान से देखा पर उसे कांटा नजर नहीं आया। वह मन ही मन हंसने लगी। धीरे-धीरे संयोग बढ़ा और ब्रह्मचर्यव्रत खंडित हो गया। गा. ६१६९ वृ. पृ. १६३० १४१.शातवाहन गोदावरी नदी तट पर प्रतिष्ठान नाम का नगर था। वहां शातवाहन नाम का राजा राज्य करता था। उसके मंत्री का नाम था खरडक। एक बार राजा ने अपने दंडनायक को बुलाया और कहा-जाओ, मथुरा नगरी को हस्तगत कर शीघ्र लौट आओ। वह शीघ्रता के कारण और कुछ जानकारी किए बिना ही अपने सैनिकों के साथ चल पड़ा। रास्ते में उसने सोचा, मथुरा नाम के दो नगर हैं। एक है दक्षिण मथुरा और दूसरा है उत्तर मथुरा। किस नगर को हस्तगत करना है ? उस राजा की आज्ञा बहुत ही कठोर होती थी। उससे पुनः पूछना संभव नहीं था। तब उस दंडनायक ने अपनी सेना को दो भागों में बांट दिया। दोनों नगरों पर सैनिकों का अधिकार हो गया। सैनिकों ने दंडनायक के पास शुभ सामाचार प्रेषित किया। दंडनायक स्वयं राजा के पास आकर बोला-देव! हमने दोनों नगरों पर अधिकार कर लिया है। इतने में ही अन्तःपुर से एक दूती ने आकर राजा को वर्धापित करते हुए कहा-राजन् ! पट्टदेवी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है। एक अन्य सदस्य ने आकर कहा-देव! अमुक प्रदेश में विपुल निधियां प्राप्त हुई हैं। इस प्रकार एक के बाद एक शुभ संवादों से राजा का हृदय हर्षातिरेक से आप्लावित हो गया। वह परवश हो गया। उस हर्षातिरेक को धारण करने में असमर्थ राजा अपनी शय्या को पीटने लगा, खंभों को आहत करने लगा। भींत को तोड़ने लगा तथा अनेक असमंजसपूर्ण प्रलाप करले लगा। तब अमात्य खरडक राजा को उपचारित व प्रतिबोधित करने के लिए स्वयं ही खंभों को, भींत को फोड़ने लगा। राजा ने पूछा-ये सारी चीजें किसने नष्ट की है? अमात्य बोला-आपने। राजा ने कहा-तुम मेरे समक्ष झूठ बोल रहे हो। ऐसा कहकर कुपित राजा ने अमात्य को पैरों से ताड़ित किया। अमात्य मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। इतने में ही उसके द्वारा पूर्व निर्दिष्ट पुरुष दौड़े-दौड़े वहां आए और अमात्य को उठाकर ले गए। उसे अज्ञात स्थान पर रख दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474