Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 408
________________ "हा ७३६ बृहत्कल्पभाष्यम् रज्जं विलुत्तसारं, जह तह गच्छो वि निस्सारो। जह जह सुयमोगाहइ, अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं । (बृभा-९३७) तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाओ। -जैसे राजा द्वारा अराक्षित राज्य साररहित हो जाता (बृभा-११६७) है, वैसे ही सारणा-वारणा रहित गच्छ भी निस्सार हो -मुनि जैसे-जैसे विशेष रस से संयुक्त उस अपूर्व श्रुत जाता है। का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे मुनि नए-नए संवेग की संपत्ती य विपत्ती य, होज्ज कज्जेसु कारगं पप्प। श्रद्धा से प्रह्लादित होता है, आनन्दित होता है। अणवायतो विवत्ती, संपत्ती कालुवाएहिं॥ न वि अत्थि न वि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्म। (बृभा-९४९) (बृभा-११६९) -कर्ता के आधार पर कार्य में संपत्ति सफलता और --स्वाध्याय के समान दूसरों कोई तपःकर्म न है और न विपत्ति-असफलता मिलती है। अनुपाय से किए हुए कार्य में होगा। विपत्ति और काल तथा उपाय से किए हुए कार्य में संपत्ति जच्चंघस्स व चंदो, फुडो वि संतो प्राप्त होती है। (बृभा-१२२४) जह ण्हाउत्तिण्ण गओ, बहुअतरं रेणुयं छुभइ अंगे। -जन्मान्ध व्यक्ति स्पष्टरूप से दृश्य चन्द्रमा का भी सुट्ट वि उज्जममाणो, तह अण्णाणी मलं चिणइ॥ विश्वास नहीं करता। (बृभा-११४७) कत्थ व न जलइ अग्गी, कत्थ व चंदो न पायडो होइ। -जैसे हाथी स्नान कर लेने के पश्चात् अपने शरीर कत्थ वरलक्खणधरा, न पायडा होति सप्परिसा॥ पर प्रचुर धूली डाल देता है वैसे ही अज्ञानी शिष्य संयम में (बृभा-१२४५) प्रचुर उद्यम करके भी, असंयमरूपी कर्ममल का उपचय -अग्नि कहां नहीं जलती? चन्द्रमा कहां प्रकट नहीं कर देता हैं। होता? उत्तम लक्षणों से युक्त सत्पुरुष कहां प्रकट नहीं होते? आयहियमजाणतो, मुज्झति मूढो समादिअति कम्मं। उदए न जलइ अग्गी, अब्भच्छन्नो न दीसई चंदो। कम्मेण तेण जंतू, परीति भवसागरमणंतं॥ मुक्खेसु महाभागा, विज्जापरिसा न भायंति॥ (बृभा-११६३) (बृभा-१२४६) -आत्महित को न जानता हुआ मूढ़ व्यक्ति मोहग्रस्त -पानी में अग्नि नहीं जलती। मेघाच्छन्न आकाश में होकर कर्मों का बंध करता है। वह उन कर्मों के कारण चन्द्रमा दृष्ट नहीं होता। मूर्यों में महाभाग विद्यापुरुष भवसागर में अनन्त बार परिभ्रमण करता है। शोभित नहीं होते। आयहियं जाणंतो, अहियनिवित्तीए हियपवित्तीए। सुक्किंधणम्मि दिप्पइ, अग्गी मेहरहिओ ससी भाइ। हवइ जतो सो तम्हा, आयहियं आगमेयव्वं ॥ तविहजणे य निउणे, विज्जापरिसा वि भायंति॥ (बृभा-११६४) __ (बृभा-१२४७) -जो आत्महित को जानता है वह अहित की निवृत्ति -सूखे इंधन से अग्नि प्रज्वलित होती है। मेघरहित और हित की प्रवृत्ति में प्रयत्न करता है। इसलिए आत्महित आकाश में चन्द्रमा शोभित होता है तथा निपुण लोगों के का ज्ञान करना चाहिए। बीच विद्यापुरुष शोभित होते हैं। सज्झायं जाणंतो, पंचिदियसंवुडो तिगुत्तो य। होइ य एक्वग्गमणो, विणएण समाहिओ साह ।। को नाम सारहीणं, स होइ जो भद्दवाइणो दमए। (बृभा-११६५) दुद्वे वि उ जो आसे, दमेइ तं आसियं बिंति॥ -स्वाध्याय अर्थात् श्रुत को जानने वाला मुनि पांचों (बृभा-१२७५) इन्द्रियों से संवृत, तीन गुप्तियों से गुप्त, एकाग्रमनवाला और -भद्र अश्वों का दमन करने में कौन सा सारथित्व विनय (आचार) से समाहित होता है। है? दुष्ट अश्वों का दमन करने वाला अश्वंदम कहलाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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