Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 413
________________ सूक्त और सुभाषित अविसज्झं साधेतो, किलिस्सति ण तं च साधेति।। (बृभा-५२७९) जो असाध्य कार्य को सिद्ध करने का प्रयत्न करता है वह क्लेश को प्राप्त होता है और कार्य भी सिद्ध नहीं होता। नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। धन्ना गुरुकुलवासं, आवकहाए न मुंचंति॥ (बृभा-५७१३) जो गुरुकुलवास को आजीवन नहीं छोड़ता वह ज्ञान को प्राप्त करता है, दर्शन और चारित्र में स्थिरतर होता है। धन्य हैं वे जो यावज्जीवन गुरुकुलवास को नहीं छोड़ते। ७४१ जह कोति अमयरुक्खो, विसकंटगवल्लिवेढितो संतो। ण चइज्जइ अल्लीतुं॥ (बृभा-६०९२) अमृतवृक्ष भी यदि विषकंटकवल्ली से परिवेष्टित है तो उसका आश्रय नहीं लिया जा सकता। रागहोसाणुगया, जीवा कम्मस्स बंधगा होति। (बृभा-६२२८) राग-द्वेष से युक्त जीव कर्मों का बंधन करते हैं। विसस्स विसमेवेह, ओसहं अग्गिमग्गिणो। मंतस्स पडिमंतो उ, दुज्जणस्स विवज्जणं॥ (बृभा-६२७३) विष की औषधी है विष, अग्नि की औषधी है अग्नि, मंत्र का प्रतिमंत्र और दुर्जन की औषधी है उसका विवर्जन। उज्जतो व तवे निच्चं, न होहिसि न होहिसि॥ (बृभा-५७१५) यदि तुम तपस्या में सदा उद्यत नहीं रहोगे तो तुम अव्याबाध सुख को प्राप्त नहीं कर सकोगे। तुच्छत्तणेण गव्वो, जायति ण य संकते परिभवेणं। (बृभा-६४००) तुच्छत्व अहंकार को उत्पन्न करता है। अहंकारी व्यक्ति परिभव से नहीं डरता। निम्विकप्पसुहं सुहं। (बृभा-५७१७) निर्विकल्प सुख ही सुख है। उस्सुत्तं ववहरंतो, कम्मं बंधति चिक्कणं। संसारं च पवढेति, मोहणिज्जं च कुव्वती।। (बृभा-६४२३) जो सूत्र के विपरीत व्यवहार करता है, उसके चिकने कर्म बंधते हैं, संसार में आवागमन बढ़ता है। वह मोहनीय कर्म का अर्जन करता है। वहए सो वि संजत्तो, गोरिवाबिधुरं धुरं॥ (बृभा-५७१८) बैल दूसरे बैल के साथ संयुक्त होकर ही शकटभार को वहन कर सकता है। परं मोहेण रंजिंतो. महामोहं पकुव्वती॥ (बृभा-६४२४) जो दूसरे को मोह में रंजित करता है वह महामोह कर्म का बंध करता है। एगागिस्स हि चित्ताइं, विचित्ताई खणे खणे। उप्पज्जति वियते य, वसेवं सज्जणे जणे॥ (बृभा-५७१९) अकेले व्यक्ति का चित्त क्षण-क्षण में विचित्र अध्यवसायों से भर जाता है। वे उत्पन्न होते हैं और विलीन हो जाते हैं। इसलिए साथ में रहना श्रेयस्कर है। धितिबलिया तवसूरा। (बृभा-६४८४) जो धृति से बलवान् होते हैं वे तपःशूर होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474