Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 412
________________ ७४० धम्मस्स मूलं विणयं वयंति, धम्मो य मूलं खलु सोग्गईए। (बृभा-४४४१) धर्म का मूल है-विनय और सद्गति का मूल है-धर्म। बृहत्कल्पभाष्यम् सव्वभूतऽप्पभूतस्स, सम्मं भूताई पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई। (बृभा-४५८६) जो समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य मानता है, जिसने आस्रवों का द्वार बंद कर दिया है, जो दान्त है-इनके पापकर्म का बंध नहीं होता। अवस्सकिरियाजोगे, वढ्तो साहु पुज्जया। (बृभा-४४४७) जो आवश्यक क्रियायोग में प्रवृत्त है, वह पूज्य है। मणो य वाया काओ अ, तिविहो जोगसंगहो। ते अजुत्तस्स दोसाय, जुत्तस्स उ गुणावहा॥ (बृभा-४४४९) योग अर्थात् प्रवृत्ति के तीन साधन हैं-मन, वचन और काया। जो अनुपयुक्त होता हैं, उनके ये तीनों योग दोष के लिए होते हैं-कर्मबंधन के निमित्त होते हैं और जो उपयुक्त होता हैं, उसके ये तीनों योग गुणकारी होते हैं, निर्जरा के लिए होते हैं। जं कल्ले कायव्वं, णरेण अज्जेव तं वरं काउं। मच्चू अकलुणहिअओ, न हु दीसइ आवयंतो वि॥ (बृभा-४६७४) जो कल करना है उसे आज ही करना अच्छा है। मृत्यु करुणाहीन होती है। वह कब-कैसे आ जाती है, किसी को दिखाई नहीं देती। जहिं नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि। सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीण मोत्तव्वो॥ (बृभा-४४६४) जिस गच्छ में सारणा, वारणा और प्रेरणा नहीं है, वह गच्छ अगच्छ है, संयमकांक्षी मुनि ऐसे गण में न रहे। तूरह धम्म काउंमा हु पमायं खणं पि कुब्वित्था। बहुविग्यो हु मुहुत्तो, मा अवरण्हं पडिच्छाहि॥ (बृभा-४६७५) भव्यप्राणियो! धर्म करने में शीघ्रता करो। क्षणभर भी प्रमाद मत करो। समय विघ्नबहुल होता है। इसलिए अपराह्म की भी प्रतीक्षा मत करो। ववहारो वि हु बलवं, जं छउमत्थं पि वंदई अरिहा। (बृभा-४५०७) व्यवहार बहुत बलवान् होता है। केवली भी छद्मस्थ मुनि को वंदना करते हैं। तुल्लम्मि वि अवराधे, परिणामवसेण होति णाणत्तं। (बृभा-४९७४) अपराध की तुल्यता में भी परिणामों के आधार पर उसमें नानात्व आ जाता है। कामं परपरितावो, असायहेतू। (बृभा-५१०८) निस्संदेह दूसरों को परिताप देना असाता का हेतु है। जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणयं॥ (बृभा-४५८४) जो तुम अपनी आत्मा के लिए चाहते हो और जो नहीं चाहते वही दूसरी आत्मा के लिए चाहो। इतना ही जिनशासन है। विणयाहीया विज्जा, देंति फलं इह परे य लोगम्मि। न फलंति विणयहीया, सस्साणि व तोयहीणाई। (बृभा-५२०३) विनय से अधीत विद्या इहलोक और परलोक-दोनों में फल देने वाली होती है। सव्वारंभ परिग्गहणिक्खेवो सव्वभूतसमया य। एक्कग्गमणसमाहाणया य अह एत्तिओ मोक्खो॥ (बृभा-४५८५) समस्त हिंसा और परिग्रह का त्याग, समस्त प्राणियों के प्रति समता तथा एकाग्रमनःसमाधानता यही मोक्ष है, यही मोक्ष का उपाय है। वुग्गाहितो न जाणति, हितएहिं हितं पि भण्णंतो। (बृभा-५२२८) वह व्युद्ग्राहित मूढ़ है जो हितकारी व्यक्तियों के हितयुक्त वचनों को भी नहीं मानता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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