________________
= ७४३
आयुर्वेद एवं आरोग्य
गंडमाल, कुष्ठ-पांडुरोग अथवा स्यन्दमान कोढ, राज- यक्ष्मा, श्लीपद, श्वयथु, गुल्म आदि रोग कहलाते हैं। कास, श्वास, हिक्का, ज्वर, अतिसार आदि को आतंक कहा जाता है।
अथवा दीर्घकालभावी रोग और आशुघाती आतंक कहलाते हैं।
त्रिदोष की चिकित्सा
पउमुप्पले माउलिंगे, एरंडे चेव निंबपत्ते य। पित्तुदय सन्निवाए, वायकोवे य सिंभे य॥
(बृभा-१०२९) पित्त प्रकोप में उत्पल पद्म, सन्निपात में बिजौरा, वात प्रकोप में एरंडपत्र तथा कफ प्रकोप में नीम के पत्तों का प्रयोग करना चाहिए।
'ओमि' त्ति त्रिभाग उष्णोदकस्य द्वौ भागौ मधुरोल्लणस्य, सप्तमे सप्तके दिने वा 'जुत्तं' ति 'युक्तं' किञ्चिन्मात्रमुष्णोदकं शेषं तु सर्वमपि मधुरोल्लणमित्येवं दीयते। तदनन्तरं द्वितीयाङ्गैरपि सहापथ्यान्यवगाहिमादीनि परिहरन् समुद्दिशति यावत् पुरातनमाहारं परिणमयितुं समर्थः सम्पन्न इति। एषा उष्णोदकादिका वृद्धिर्द्रष्टव्या।
(वृ. पृ.५५७) जाव न मुक्को ता अणसणं तु मुक्के वि ऊ अभत्तट्ठो। असहुस्स अट्ठ छटुं, नाऊण रुयं व जं जोगं। एवं पि कीरमाणे, विज्जं पुच्छे अठायमाणम्मि।।
(बृभा-१९०९,१९१०) जब तक वह मुनि ज्वर या चक्षुरोग आदि से मुक्त नहीं होता तब तक अनशन-अभक्तार्थ करे। रोग-मुक्त होने पर भी एक दिन अभक्तार्थ करे। यदि वह लंबे समय तक अभक्तार्थ करने में समर्थ न हो तो तेला या बेला करे। रोग को जानकर उसके उपशमन के लिए जो योग्य उपाय हो वह करे।
इस प्रकार करने पर भी यदि रोग उपशांत नहीं होता है तो वैद्य को पूछे।
श्लीपद रोग
जं सिलीपई निदायति।
(बृभा-११४८) श्लीपदनाम्ना रोगेण यस्य पादौ शूनौ-शिलावद् महाप्रमाणौ भवतः स एवंविधःश्लीपदी।
(बृभा वृ. पृ. ३५८) श्लीपद नामक रोग में पैर शिला की भांति स्थूल और भारी हो जाते हैं। उससे आक्रान्त रोगी श्लीपदी कहलाता है।
वैद्य के पास जाने की विधि
एक्कग दुगं चउक्वं, दंडो दूया तहेव नीहारी।
(बृभा-१९२१) वैद्य के पास एक व्यक्ति के जाने से वह उसे यमदण्ड की दृष्टि से देखता है, दो व्यक्तियों को यमदूत मानता है, चार व्यक्तियों के साथ जाने पर वह कहता है-'शव को कंधा देने वाले आए हैं', अतः तीन मुनि जाते थे। वैद्य के पास ध्यातव्य बातें
किह उप्पन्नो गिलाणो, अट्ठम उण्होदगाइया वुड्डी। किंचि बहु भागमद्धे, ओमे जुत्तं परिहरंतो॥
(बृभा-१९०८) 'कथं' केन हेतुना ग्लान उत्पन्नः? इति। सूरिराह-भूयांसः खलु रोगातङ्का यदशाद् ग्लानत्वमुपजायते। तत्र-'शुष्यतस्त्रीणि शुष्यन्ति, चक्षुरोगो ज्वरो व्रणः।' इति वचनाद्-यदि ज्वरादिको विशोषण-साध्यो रोगः ततो जघन्येनाप्यष्टमं कारयितव्यः। यच्च यस्य रोगस्य पथ्यं तत् तस्य कार्यम्, यथा-वातरोगिणो घृतादिपानं पित्तरोगिणः शर्कराधुपयोजनं श्लेष्मरोगिणो नागरादिग्रहणमिति। 'उण्होदगाइया बुढि' त्ति उपवासं कर्तुमसहिष्णुर्यदि रोगेणामुक्तः पारयति तत एष क्रमः-उष्णोदके प्रक्षिप्य कूरसिक्थानि अमलितानि ईषन्मलितानि वा सप्त दिनानि एकं वा दिनं दीयन्ते। ततः 'किंचि' त्ति उष्णोदके मधुरोल्लणं स्तोकं प्रक्षिप्य तेन सह ओदनं द्वितीये सप्तके दिने वा दीयते। एवं तृतीये 'बहु' त्ति बहुतरं मधुरोल्लणं उष्णोदके प्रक्षिप्य दीयते। 'भागि' त्ति चतुर्थे सप्तके दिने वा त्रिभागो मधुरोल्लणस्य द्वौ भागावष्णोदकस्य. 'अद्धे त्ति पञ्चमे सप्तके दिने वा अन्दै मधुरोल्लणस्यार्द्धमष्णोदकस्य षष्ठे
साड-ऽब्भंगण-उव्वलण-लोय
छारु-कुरुडे य छिंद-भिंतो। सुहआसण रोगविहिं,
उवएसो वा वि आगमणं॥
(बृभा-१९२५) एकशाटकपरिधानो यदा वैद्यो भवति तदा न प्रष्टव्यः। एवं तैलादिना अभ्यङ्गनं कल्कलोघ्रादिना वा उद्धर्त्तनं लोचकर्म वाकूर्चमुण्डनादिलक्षणं कारयन्, क्षारस्य-भस्मन उत्कुरुटकस्यकचवरपुञ्जकस्य उपलक्षणत्वाद् बुसादीनां वा समीपे स्थितः, कोष्ठादिक वा रप्फकादिना वा दूषितं कस्याप्यङ्गं छिन्दानः, घटम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org