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सूक्त और सुभाषित माई अवन्नवाई, किब्विसियं भावणं कुणइ।
(बृभा-१३०२) -जो साधुओं का अवर्णवाद बोलता है वह मायावी किल्विषिक भावना करता है, दुर्गति का बंध करता है।
काउंच नाणुतप्पइ, एरिसओ निक्किवो होइ।
(बृभा-१३१९) -जो अकार्य करके अनुताप नहीं करता, वह निष्कृपदयाविहीन होता है।
खामिंतस्स गुणा खलु, निस्सल्लय विणय दीवणा मग्गे। लाघवियं एगत्तं, अप्पडिबंधो अ॥
(बृभा-१३७०) -क्षमायाचना से निष्पन्न गुण-निःशल्यता, विनय, संयममार्ग की दीपना, हल्कापन, एकत्व की अनुभूति, अप्रतिबद्धता का विकास। धंतं पि दुद्धकंखी, न लभइ दुद्धंठें अधेणूतो।
(बृभा-१९४४) -दूध पाने का अत्यंत आकांक्षी पुरुष भी अधेनु से दूध प्राप्त नहीं कर सकता।
जो उ परं कंपंतं, दट्टण न कंपए कढिणभावो। एसो उ निरणुकंपो।
(बृभा-१३२०) -जो दूसरे को प्रकंपित देखकर भी स्वयं प्रकंपित नहीं होता, वह कठोरभाव वाला व्यक्ति दयाविहीन होता है।
दीवा अन्नो दीवो, पइप्पई सो य दिप्पइ तहेव। सीसो च्चिय सिक्खंतो, आयरिओ होइ नऽन्नत्तो॥
(बृभा-२११२) -एक दीपक से दूसरा दीपक जलाया जाता है और पूर्व दीपक प्रद्योतित रहता है। इसी प्रकार शीक्षमाण शिष्य ही आचार्य बनता है, दूसरा नहीं।
अप्पाहारस्स न इंदियाइं विसएस संपवत्तंति। नेव किलम्मइ तवसा, रसिएसु न सज्जए यावि॥
(बृभा-१३३१) -अल्पाहार करने वाले व्यक्ति की इन्द्रियां विषयों में प्रवृत्त नहीं होती। वह तपस्या से क्लान्त नहीं होता। वह स्निग्ध भोजन में आसक्त नहीं होता।
सुयभावणाए नाणं, दंसण तवसंजमं च परिणमइ।
(बृभा-१३४४) -श्रुतभावना से ज्ञान, दर्शन, तप और संयम की सम्यक् परिणति होती है।
तं तु न विज्जइ सज्झं, जंधिइमंतो न साहेइ।
(बृभा-१३५७) -ऐसा कोई साध्य नहीं है, जिसे धृतिमान् पुरुष सिद्ध न कर सके।
जइ किंचि पमाएणं, न सुट्ठ भे वट्टियं मए पुब्विं। तं भे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ॥
(बृभा-१३६८)
सीहं पालेइ गुहा, अविहाडं तेण सा महिड्डीया। तस्स पुण जोव्वणम्मिं, पओअणं किं गिरिगुहाए।
(बृभा-२११४) -सिंहशिशु का रक्षण गुफा करती है, इसलिए गुफा महर्द्धिक है। जब वह युवा हो जाता है तब गुफा का क्या प्रयोजन? सिंह स्वयं महर्द्धिक हो जाता है। न यसो भावो विज्जइ, अदोसवं जो अनिययस्स।
(बृभा-२१३८) -जगत् में ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है जो अनुद्यमी व्यक्ति के लिए दोषवान् न हो। वालेण य न छलिज्जइ, ओसहहत्थो वि किं गाहो?
(बृभा-२१६०) -क्या औषधियुक्त हाथ वाला गारुडिक भी दुष्ट सर्प से नहीं छला जाता?
उदगघडे वि करगए, किमोगमादीवतं न उज्जलइ। अइइन्द्रो वि न सक्कइ, विनिव्ववेउं कुडजलेणं॥
(बृभा-२१६१) -हाथ में पानी से भरा एक घड़ा है, फिर भी क्या अग्नि से प्रज्वलित घर नहीं जलेगा?
अतिदीप्त अग्नि एक घड़े पानी से नहीं बुझाई जा सकती।
-यदि मैंने अतीत काल में प्रमादवश उचित वर्ताव न किया हो तो मैं शल्यरहित और कषायरहित होकर क्षमायाचना करता हूं।
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