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चौथा उद्देशक वृद्धि और प्रभावना होती है। कुलिंगियों की अपभ्राजना होती है। उनकी (महर्द्धिक व्यक्तियों की) अनुवर्तना न करने पर चार भारिकमास (गुरुमास) का प्रायश्चित्त आता है। ५३३८.अद्धाणाऽसिव ओमे, रायडुवे असंथरेता उ।
सयमवि य भुंजमाणा, विसुद्धभावा अपच्छित्ता॥ अध्वा, अशिव, अवम, राजद्विष्ट, असंस्तरण में विशुद्धभाव से स्वयं भी अनेषणीय भोजन करने पर प्रायश्चित्त का भागी नहीं होता।
कप्पट्ठिय-अकप्पट्ठिय-पदं
जे कडे कप्पट्ठियाणं कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं, नो से कप्पइ कप्पट्ठियाणं। जे कडे अकप्पट्ठियाणं नो से कप्पइ कप्पट्ठियाणं कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं। कप्पे ठिया कप्पट्ठिया, अकप्पे ठिया अकप्पट्ठिया॥
(सूत्र १५)
घर में नए शालि प्रचुर मात्रा में आए। श्रावक शालि, घृत, गुड़, गोरस तथा वल्लीफलों के होने पर पुण्यार्थ आधाकर्म कर साधुओं को ग्रहण करने का निमंत्रण देता है। ५३४२.आहा अहे य कम्मे, आताहम्मे य अत्तकम्मे य।
तं पुण आहाकम्म, णायव्वं कप्पते कस्स। आधाकर्म के ये एकार्थक पद हैं-आधाकर्म, अधःकर्म, आत्मघ्न, आत्मकर्म। आधाकर्म किसको कल्पता है, यह जानना चाहिए। ५३४३.संघस्स पुरिम-पच्छिम
मज्झिमसमणाण चेव समणीणं। चउण्ह उवस्सयाणं,
कायव्वा मग्गणा होति॥ आधाकर्मकारी या तो सामान्य संघ को उद्दिष्ट करता है अथवा पूर्व, पश्चिम या मध्यम संघ को विशेषरूप उद्दिष्ट करता है, श्रमणों का या श्रमणियों का ओघतः प्रणिधान करता है। इसी प्रकार सामान्य या विशेषरूप से चारों प्रकार के उपाश्रयों की मार्गणा करनी होती है। चार प्रकार के उपाश्रय
१. पंचयामिक श्रमणों का उपाश्रय २. पंचयामिक श्रमणियों का उपाश्रय ३. चतुर्यामिक श्रमणों का उपाश्रय
४. चतुर्यामिक श्रमणीयों का उपाश्रय। ५३४४.संघं समुद्दिसित्ता,पढमो बितिओ य समण-समणीओ।
ततिओ उवस्सए खलु, चउत्थओ एगपुरिसस्स। एक दानश्राद्ध संघ को उद्दिष्ट कर आधाकर्म करता है, दूसरा श्रमण-श्रमणियों को उद्दिष्ट कर करता है, तीसरा उपाश्रयों को उद्दिष्ट कर करता है और चौथा एक पुरुष को उद्दिष्ट कर करता है। ५३४५.जति सव्वं उद्दिसिउं, संघं कारेति दोण्ह वि ण कप्पे।
अहवा सव्वे समणा, समणी वा तत्थ वि तहेव॥ यदि ऋषभस्वामी का तीर्थ और अजितस्वामी का तीर्थ या पार्श्व का तीर्थ और महावीर का तीर्थ एकत्र मिला हुआ है और यदि सामान्य रूप से समस्त संघ को उद्दिष्ट कर कोई आधाकर्म करता है तो दोनों संघों-पंचयामिक और चतुर्यामिक को नहीं कल्पता। इसी प्रकार यदि सभी श्रमणों और श्रमणियों को उद्दिष्ट किया है तो दोनों को नहीं कल्पता। ५३४६.जइ पुण पुरिमं संघ, उद्दिसती मज्झिमस्स तो कप्पे।
मज्झिमउद्दिद्वे पुण, दोण्हं पि अकप्पितं होति॥ यदि पूर्व संघ को समुद्दिष्ट करता है तो मध्यम संघ
५३३९.सुत्तेणेव उ जोगो, मिस्सियभावस्स पन्नवणहेउं।
अक्खेव णिण्णओ वा, जम्हा तु ठिओ अकप्पम्मि॥ सूत्र से ही योग-संबंध किया गया है। मिश्रितभाववाले शैक्ष की प्रज्ञापना के लिए प्रस्तुत सूत्र का प्रारंभ किया जाता है। अथवा इसमें आक्षेप का निर्णय है। क्योंकि यह शैक्ष अकल्प अर्थात् सामायिकसंयमकल्प में स्थित है अतः उसे अनेषणीय भी कल्पता है। ५३४०.कप्पठिइपरूवणता, पंचेव महव्वया चउज्जामा।
कप्पट्ठियाण पणगं, अकप्प चउजाम सेहे य॥ सबसे पहले कल्पस्थिति की प्ररूपणा करनी चाहिए। पांच महाव्रत-रूप कल्पस्थिति प्रथम और चरम तीर्थंकर के मुनियों की तथा चतुर्यामरूप कल्पस्थिति शेष बावीस तीर्थंकरों के मुनियों की यह दो प्रकार की कल्पस्थिति है। जो कल्पस्थित हैं, उनके पांच महाव्रत होते हैं और जो अकल्पस्थित हैं, उनके चतुर्याम होते हैं। पूर्व-पश्चिम तीर्थंकरों का शैक्ष सामायिक संयम के कारण चातुर्यामिक
और अकल्पस्थित होता है। जब वह उपस्थापित हो जाता है तब वह कल्पस्थित हो जाता है। ५३४१.साली घय गुल गोरस, णवेसु वल्लीफलेसु जातेसु।
पुण्णट्ठ करण सहा, आहाकम्मे णिमंतणता॥
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