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६४२४.उम्मग्गदेसणाए य, मग्गं विप्पडिवातए।
परं मोहेण रंजिंतो, महामोहं पकुव्वती॥ उन्मार्ग देशना से व्यक्ति मोक्षमार्ग का व्यवच्छेद करता है और दूसरे को भी मोह से रंजित कर महामोह का बंधन करता है। ६४२५.सपडिक्कमणो धम्मो,
पुरिमस्स इ पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमयाण जिणाणं,
कारणजाए पडिक्कमणं॥ पूर्व और पश्चिम जिनेश्वरदेव का प्रतिक्रमणयुक्त धर्म होता है। मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थ में कारण उत्पन्न होने पर प्रतिक्रमण होता है। ६४२६.गमणाऽऽगमण वियारे,
सायं पाओ य पुरिम-चरिमाणं। नियमेण पडिक्कमणं,
अतियारो होउ वा मा वा॥ प्रथम और चरम तीर्थंकर के साधु गमनागमन करते हुए, विचारभूमी में जाते हुए, अतिचार हो या न हो, वे नियमतः प्रातः और सायं प्रतिक्रमण करते हैं। ६४२७.अतिचारस्स उ असती,
णणु होति णिरत्थयं पडिक्कमणं। ण भवति एवं चोदग!,
तत्थ इमं होति णातं तु॥ शिष्य ने पूछा-अतिचार न होने पर प्रतिक्रमण निरर्थक होता है। हे शिष्य! तुम्हारे कहने के अनुसार प्रतिक्रमण का निरर्थकत्व नहीं होता। उसके सार्थकत्व में यह उदाहरण है। ६४२८.सति दोसे होअगतो,
जति दोसो णत्थि तो गतो होति। बितियस्स हणति दोसं,
न गुणं दोसं व तदभावा॥ ६४२९.दोसं हतूण गुणं, करेति गुणमेव दोसरहिते वि।
ततियसमाहिकरस्स उ, रसातणं डिंडियसुतस्स॥ ६४३०.जति दोसो तं छिंदति,
असती दोसम्मि णिज्जरं कुणई। कुसलतिगिच्छरसायणमुवणीयमिदं
पडिक्कमणं॥ राजकुमार बीमार हो गया। तीन वैद्य चिकित्सा करने आए। राजा के सामने पहले वैद्य ने कहा-मेरी औषधी रोग १. देखें कथा परिशिष्ट, नं. १५०।
बृहत्कल्पभाष्यम् होगा तो उसे मिटा देगी। रोग न होने पर वह औषधी स्वयं रोग बन जाएगी। दूसरे वैद्य ने कहा-मेरी औषधी रोग का नाश करेगी। यदि रोग नहीं होगा तो न गुण करेगी और न दोष। तीसरे वैद्य ने कहा-मेरी औषधी रसायन है और वह राजपुत्र के लिए उपयुक्त है। यह प्रतिक्रमण कुशल चिकित्सक के रसायन तुल्य है। यदि कोई दोष लगा है तो उसको नष्ट कर देगा और कोई दोष न लगा हो तो कर्म निर्जरा होगी। ६४३१.दुविहो य मासकप्पो, जिणकप्पे चेव थेरकप्पे य।
एक्वेक्को वि य दुविहो, अट्ठियकप्पो य ठियकप्पो।। मासकल्प के दो प्रकार हैं-जिनकल्प और स्थविरकल्प। प्रत्येक दो-दो प्रकार का है-अस्थितकल्प और स्थितकल्प। ६४३२.पज्जोसवणाकप्पो, होति ठितो अद्वितो य थेराणं।
एमेव जिणाणं पि य, कप्पो ठितमट्टितो होति। पर्युषणाकल्प स्थविरकल्पिकों और जिनकल्पिकों-दोनों के होता है। दोनों के वह स्थित और अस्थित-दोनों प्रकार का होता है। ६४३३.चाउम्मासुक्कोसे, सत्तरिराइंदिया जहण्णेणं।
ठितमट्टितमेगतरे, कारणवच्चासितऽण्णयरे॥ पर्युषणाकल्प उत्कृष्टतः चार मास का (आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिकी पूर्णिमा तक) और जघन्यतः सत्तर रातदिन का (भाद्र शुक्ल ५ से कार्तिक पूर्णिमा तक) होता है। यह कल्प पूर्व और पश्चिम तीर्थंकरों के स्थित होता और शेष तीर्थंकरों के अस्थित होता है। पूर्व और पश्चिम तीर्थंकरों के तीर्थ में अन्यतर अशिव कारण में मासकल्प या पर्युषणाकल्प में व्यत्यास भी कर सकते हैं। ६४३४.थेराण सत्तरी खलु, वासासु ठितो उडुम्मि मासो उ।
वच्चासितो तु कज्जे, जिणाण नियमऽट्ठ चउरो य॥ प्रथम-चरम तीर्थंकरों के स्थविरकल्पी साधुओं के वर्षा में सत्तर दिन का पर्युषणाकल्प होता है, उनके ही ऋतुबद्ध काल में एक मास का स्थित कल्प होता है। अशिव आदि कार्य में व्यत्यासित-हीनाधिक भी होता है। प्रथम-चरम तीर्थंकर के . जिनकल्पिक साधुओं के नियमतः ऋतुबद्धकाल में आठ मास
और वर्षा में चार मास होते हैं। ६४३५.दोसाऽसति मज्झिमगा, अच्छंती जाव पुव्वकोडी वि।
विचरंति अ वासासु वि, अकद्दमे पाणरहिए य॥ ६४३६.भिण्णं पि मासकप्पं, करेंति तणुगं पि कारणं पप्प।
जिणकप्पिया वि एवं, एमेव महाविदेहेसु॥
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