Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 376
________________ ७०४= बृहत्कल्पभाष्यम् मैं वेदना को सहन कर लूंगा-राजा के ऐसा कहने पर वैद्य ने गुटिका से उसकी आंखें आंज दी। एक बार तो असह्य वेदना हुई, किन्तु कुछ समय बाद आंखें स्वस्थ हो गईं। गा. १२७७-७८ वृ. पृ. ३९४ ५७. सिंह दृष्टान्त एक सिंह गिरि-नदी को तैर कर उस पार जाना चाहता था। वह नदी में उतरा। पानी के तीव्र वेग ने उसे पुनः तट पर ला पटका। वह पुनः वहां से लौटा और पर तीर पर जाने के लिए नदी में उतरा। पानी के वेग ने उसका पुनः अपहरण कर लिया। इस प्रकार वह जब तक नदी में तैर कर पार नहीं गया, तब तक उसने नदी में तैरने का अभ्यास नहीं छोड़ा। उसी प्रकार मुनि भी जब तक विवक्षित तप आत्मसात् नहीं हो जाता तब तक उसका अभ्यास नहीं छोड़ता। गा. १३२९ वृ. पृ. ४०७ ५८. पुष्पचूल राजर्षि पुष्पपुर नगर में पुष्पकेतु महाराजा की महारानी पुष्पावती ने एक युगल का प्रसव किया। पुत्र का नाम पुष्पचूल और पुत्री का नाम पुष्पचूला रखा। दोनों साथ-साथ बड़े हुए। दोनों में गहरा अनुराग था। पुष्पचूल राजा बना। उसने पुष्पचूला का पाणिग्रहण ऐसे व्यक्ति से किया जो गृहदामाद (घर जंवाई) रह सके। वह भर्ता से केवल रात्रि में ही मिलती, दिनभर भाई के साथ रहती। भाई पुष्पचूल प्रवजित हुआ तो वह भी अनुराग के कारण प्रव्रजित हो गई। कालान्तर में मुनि जिनकल्प साधना स्वीकार करने के लिए एकत्व भावना से अपने आपको भावित कर रहे थे। एक देव ने परीक्षा के बहाने आर्या पुष्पचूला का रूप बनाया। कई धूर्त व्यक्ति पुष्पचूला के साथ बलात्कार करने का प्रयत्न करने लगे। उस समय मुनि पुष्पचूल उधर जा रहे थे। उन्हें देखकर पुष्पचूला आर्या चिल्ला उठी ज्येष्ठार्य! मुझे बचाओ। मुनि प्रेम बन्धन से मुक्त हो चुके थे। 'एगो हं नत्थि मे को वि, नाहमन्नस्स कस्सइ'-इस एकत्व भावना को गुनगुनाते हुए वे अपने स्थान पर चले गए। गा. १३४९-१३५१ वृ. पृ. ४११ ५९. गर्दभ दृष्टान्त एक गर्दभ प्रचुरमात्रा में आहार करने से उन्मत्त हो गया। जब कुंभकार उस पर मिट्टी के बर्तन रखता तब वह उछल कर सारे बर्तन तोड़ देता। कुंभकार ने उसका आहार बंद कर दिया, जिससे वह बर्तनों का भार वहन करने में असमर्थ हो गया। कुंभकार ने उसे उचित आहार दिया तब वह बर्तन वहन करने लगा। साधु भी प्रतिदिन स्निग्ध, मधुर आहार करता है, उससे शरीर पुष्ट होता है साथ में विकार भी पैदा होते हैं। वह मोहकर्म से पीड़ित होता हुआ संयम योगों का बलपूर्वक मर्दन करता है। आहार के अभाव में कृशशरीरी हो जाता है जिससे संयमयोगों का पालन करने में असमर्थ हो जाता है। अतः उचित मात्रा में आहार करता हुआ वह संयम की अच्छी आराधना कर सकता है। गा. १५२७ वृ. पृ. ४५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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