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बृहत्कल्पभाष्यम्
८८. संप्रति एक बार एक रंक ने सुहस्ती के साधुओं को देखा। क्षुधाकुल होने के कारण उसने उनसे आहार मांगा। साधुओं ने कहा-हम अपने आचार्य सुहस्ती को पूछे बिना नहीं दे सकते। वह वहां पहुंच गया। आर्य सुहस्ती ने ज्ञान बल से देखा-यह प्रवचन प्रभावक होगा। उससे कहा-तुम दीक्षा लो तो भोजन दे सकते हैं। वह तैयार हो गया। सामायिक चारित्र स्वीकार किया। कई दिनों बाद भोजन मिलने से उसने अतिभोजन कर लिया, जिससे उसके अजीर्ण हो गया। उसी रात्री में मृत्यु को प्राप्त हो गया। (वह यहां से मरकर अव्यक्त सामायिक के कारण कुणाल के पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ।) चन्द्रगुप्त का पुत्र बिंदुसार। बिंदुसार का पुत्र अशोक। अशोक का पुत्र कुणाल। कुणाल को बचपन से ही उज्जैनी का अधिपत्य दे दिया गया। कुणाल के घर में वह रंक पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। जन्म के बारह दिन बीतने पर उसका नाम सम्प्रति रखा गया।
कालान्तर से विहरण करते हुए आर्य सुहस्ती उज्जैनी पधारे। राजा संप्रति ने गवाक्ष से आर्य सुहस्ती को देखा और उसे जातिस्मृति ज्ञान हो गया। वह अतिशीघ्र आचार्य सुहस्ती के पास आया और बोला आप मुझे पहचानते हो। आचार्य सुहस्ती ने ज्ञान के द्वारा जान लिया। वे बोले-हां जानता हूं। वे कुछ बताते उससे पूर्व राजा सम्प्रति ने कहा-मैं वही भिखारी हूं। जिसको आपने दीक्षित किया। मैं वहां से मरकर यहां उत्पन्न हुआ हूं। राजा ने धर्म स्वीकार किया।
गा. ३२७५,३२७६ वृ. पृ.९१७
८९. स्तेन दृष्टान्त
एक राजा आचार्य का उपदेश सुनकर श्रद्धावान् हो गया। राजा ने आचार्य से सब साधुओं को रत्नकम्बल देने की इच्छा व्यक्त की। आचार्य ने कहा-राजन् ! साधु को बहुमूल्य वस्त्र अपेक्षित नहीं है। राजा के अति आग्रह पर आचार्य ने एक रत्नकम्बल ग्रहण किया। उपाश्रय में आकर उसके छोटे-छोटे टुकड़े कर संतों को बैठने के लिए दे दिए। इधर एक चोर ने आचार्य को रत्नकम्बल ग्रहण करते हुए देख लिया। वह रात को उपाश्रय में आया और सोए हुए आचार्य के ऊपर छूरी लेकर बैठ गया। और बोला-मुझे वह रत्नकंबल दो नहीं तो मार दूंगा। आचार्य बोले-उसके टुकड़े कर दिए। चोर बोला-सिलाई करके दो, तब आचार्य ने सिलवाकर रत्नकम्बल चोर को दिया।
गा. ३९०३,३९०४ १. पृ. १०७१
९०.सुलक्षण अश्व
पारस देश के एक व्यक्ति के पास प्रति वर्ष प्रसव करने वाली अनेक घोड़ियां थीं। उसके पास अश्वों की प्रचुरता हो गई। उनकी सार संभाल के लिए उसने एक नौकर को इस शर्त पर रखा कि वर्ष के अन्त में उसके मनपसन्द के दो अश्व उसे दे दिए जायेंगे। अश्व-रक्षक का अश्वस्वामी की कन्या से साहचर्य हो गया था। एक वर्ष पूरा हुआ। अश्वस्वामी ने उसे कहा-जाओ, दो मनपसन्द अश्व ले लो। वह अश्वों के लक्षण नहीं जानता था। उसने स्वामी की कन्या से लक्षण युक्त अश्वों के विषय में पूछा। वह बोली-तुम प्रतिदिन अश्वों को लेकर जंगल में जाते हो। जब अश्व एक विशाल वृक्ष के नीचे बैठे हों तब तुम चमड़े के कुतप में पत्थर भरकर वृक्ष के ऊपरी भाग से उसे गिराना और पटहवादन करना। जो अश्व इस क्रिया से त्रस्त न हो, वे सुलक्षण अश्व हैं। उसने वैसा ही किया और स्वामी से उन दो अश्वों को मांगा, जो इस प्रक्रिया से त्रस्त नहीं हुए थे। स्वामी ने सोचा-ये दोनों अश्व समस्त लक्षणों से युक्त हैं। इन्हें दे देने पर शेष क्या रहेगा? इसलिए उससे कहा-इन दो अश्वों के
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