Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 392
________________ ७२०= = बृहत्कल्पभाष्यम् १०६. सरसों की भाजी एक मुनि को गोचरी में सरसों की भाजी मिली। उसने आचार्य को उसके लिए निमंत्रित किया। गुरु ने सारी भाजी खाली। शिष्य इससे कुपित हो गया। गुरु ने क्षमायाचना की, पर वह उपशांत नहीं हुआ। तब गुरु ने उस गण के लिए दूसरे आचार्य की स्थापना कर स्वयं अन्य गच्छ में जाकर भक्तप्रत्याख्यान अनशन कर लिया। गुरु कालगत हो गए। उस दुष्ट शिष्य ने अपने साथी साधुओं से गुरु के विषय में पूछताछ की। किसी ने कुछ नहीं बताया तब दूसरे स्रोतों से सारी जानकारी प्राप्त कर वह वहां गया जहां गुरु ने अनशन कर शरीर को त्यागा था। वहां जाकर उसने पूछा-उनका शरीर कहां है? गुरु ने प्राणत्याग से पूर्व ही कह दिया था कि उस दुष्ट शिष्य को मेरे विषय में कुछ मत बताना। अतः उसके पूछने पर भी उन्होंने कुछ नहीं बताया। उसने अन्य स्रोत से सारी जानकारी प्राप्त कर वहां पहुंचा जहां आचार्य के शरीर का परिष्ठापन किया था। उसने उस मृत शरीर को निकाला और गुरु के दांतों को तोड़ते हुए बोला-तुमने इन्हीं दांतों से सरसों की भाजी खाई थी। साधुओं ने यह देखा और सोचा-इस दुष्ट ने प्रतिशोध लेकर अपना क्रोध शांत किया है। गा. ४९८८, ४९८९ वृ. पृ. १३३३ १०७. मुखवस्त्रिका एक साधु को अत्यंत उज्ज्वल मुखवस्त्रिका प्राप्त हुई। उसने गुरु को दिखाई। गुरु ने उसको ले ली। उसके मन में गुरु के प्रति प्रद्वेष उत्पन्न हो गया। गुरु ने यह जाना और मुखवस्त्रिका पुनः देते हुए क्षमायाचना की किन्तु का क्रोध शांत नहीं हो रहा था। यह जानकर गुरु ने भक्तप्रत्याख्यान अनशन ले लिया। रात्री में एकान्त पाकर शिष्य गुरु के निकट गया और गुरु के गले को जोर से दबाया। संमूढ होकर दूसरे शिष्य ने उस दुष्ट का गला पकड़कर जोर से दबाया। दोनों-गुरु और वह दुष्ट शिष्य- मृत्यु को प्रास हो गए। गा. ४९९० वृ. पृ. १३३३ १०८. उलूकाक्ष एक साधु सूर्यास्त के समय कपड़े सी रहा था। दूसरे मुनि ने कहा-अरे उलूकाक्ष! सूर्य के अस्तगत हो जाने पर भी सी रहा है? वह कुपित होकर बोला-'तुम मुझे इस प्रकार कहते हो, मैं तुम्हारी दोनों आंखें उखाड़ दूंगा।' उसे क्रोधाविष्ट देखकर दूसरा शिष्य सहम गया। क्षमायाचना करने पर भी वह शांत नहीं हुआ यह जानकार उस शिष्य के अनशनपूर्वक मरने के पश्चात् पहले शिष्य ने उसकी दोनों आंखें उखाड़ कर 'तुमने मुझे उलूकाक्ष कहा था', यह कहते हुए दोनों आंखें निकाल कर अपना गुस्सा शांत किया। गा. ४९९१ वृ. पृ. १३३३ १०९. शिखरिणी एक बार एक शिष्य को भिक्षा में उत्कृष्ट शिखरिणी की प्राप्ति हुई। कायोत्सर्ग कर गुरु के समक्ष पात्र रख गुरु को उसके लिए आमंत्रित किया। गुरु ने स्वयं समूची शिखरिणी का पान कर लिया। तब उस दुष्ट शिष्य ने गुरु को मारने के लिए दंड उठाकर प्रतीक्षा की। गुरु ने क्षमायाचना की, परन्तु वह शिष्य उपशांत नहीं हुआ। तब गुरु ने अपने गण में ही अनशन स्वीकार कर समाधिमरण को प्राप्त किया। तदनन्तर उस दुष्ट शिष्य ने गुरु के शरीर को दंडे से खूब कूटा फिर उसका गुस्सा शांत हुआ। गा. ४९९२ वृ. पृ. १३३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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