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=बृहत्कल्पभाष्यम्
१२७. धूर्त स्वर्णकार एक स्वर्णकार ने एक युवक के कानों में सोने के कुंडल देखे। उसने कुंडल ग्रहण करने का चिंतन किया। स्वर्णकार ने उस युवक को संबोधित करते हुए कहा-भाणेज ! कैसे आये हो? बहुत वर्षों बाद ननिहाल की याद आयी है क्या? आओ, आओ तुम्हारे मामी तो तुम्हें बहुत याद करती है। चलो, घर चलो। युवक ने सोचा-मेरा ननिहाल तो इसी नगर में है पर मैं बहुत छोटा था तब आया था। मैं मामा को पहचानता नहीं हूं। संभव है यह मेरे मामा ही हो। वह मामा के पास रहने लगा। कुछ दिन बाद स्वर्णकार ने कहा-भाणेज! इन कुंडल को देख कोई कोई चोर कान नहीं काट दे। मैं इन पर पालिश कर दूंगा। जिससे ये कुंडल स्वर्णवत् प्रतीत नहीं होंगे। उसने कुंडल दे दिए। स्वर्णकार ने वे कुंडल रख लिये और अन्य धातु के वैसे ही कुंडल बनाकर दे दिये। वह बाहर गया, लोगों ने उसके कुंडल देखकर कहा-ये कुंडल सोने के नहीं है खोटे प्रतीत होते है। वह बोला-आप नहीं जानते। मैं और मेरे मामा ही जानते हैं। ये खोटे नहीं सोने के ही है। लोगों के समझाने पर भी वह सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता।
गा. ५२२७ वृ. पृ. १३८९
१२८. शशक मशक
भरत क्षेत्र में एक वनवासी नगरी थी। वहां जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसके शशक-मशक दो पुत्र और सुकुमारिका पुत्री थी। दोनों भाई यौवनावस्था में ही विरक्त होकर दीक्षित हो गए। दीक्षित होकर दोनों ने आगमों का गहन अध्ययन किया। जिससे वे गीतार्थ साधुओं की गणना में आने लगे। एक बार वनवासी नगरी में अचानक आग लग गई। सुकुमारिका को छोड़ पूरा वंश नष्ट हो गया। कुछ दिनों बाद शशक-मशक साधुओं को यह घटना ज्ञात हुई। वे दोनों अपनी संसारपक्षीया बहिन को दर्शन देने वनवासी नगरी में आए। भाई साधुओं को देखते ही उसका मन वैराग्य से भर गया। सुकुमारिका के मन को विरक्त जानकर उसे दीक्षित कर दिया। तीनों तुरमिणी नगरी आ गए। वहां महत्तरिका के पास साध्वी सुकुमारिका को छोड़कर वे आचार्य के पास चले गये।
साध्वी सुकुमारिका अत्यधिक रूपवती थी। वह भिक्षा के लिए जब भी उपाश्रय में बाहर जाती तो अनेक युवक उसके पीछे हो जाते, उपाश्रय में आकर बैठ जाते। अन्य साध्वियों को प्रतिलेखना आदि कार्य करने में कठिनाई होती। साध्वी सुकुमारिका भी तंग हो जाती। उसके रूप और लावण्य के कारण उपाश्रय युवकों से खाली नहीं होता। सभी साध्वियों ने प्रधान साध्वी को निवेदन किया। उसने गुरु से यथास्थिति ज्ञात की। गुरु ने शशक-मशक साधुओं को निर्देश दिया-तुम दोनों अब साध्वी सुकुमारिका की रक्षा का दायित्व संभालो। वे गुरु के निर्देशानुसार अन्य उपाश्रय में रहने लगे। दोनों सहस्रयोधी थे। एक भिक्षा के लिए गांव में जाता तो दूसरा उसकी रक्षा के लिए उपाश्रय में रहता। अनेक युवक साध्वी सुकुमारिका को देखने के लिए उपाश्रय में जाना चाहते पर वे उन्हें हत-प्रहत कर देते। जिस घर के युवकों के साथ मार-पीट होती, उस घर से उन्हें भिक्षा प्राप्त नहीं होती। ऐसा करते-करते एक दिन ऐसा आ गया कि तीनों के लिए पर्याप्त आहार नहीं मिलता। जब दूसरा भिक्षा के लिए जाता जब तक काल का अतिक्रमण हो जाता अतः उसे भिक्षा प्राप्त नहीं होती। दोनों चिन्तित हो गए। सुकुमारिका को पता चला कि भिक्षा पर्यास नहीं मिलती। वह अपने भाई साधुओं से बोली-आप चिन्ता न करें, मैं भक्त-प्रत्याख्यान करना चाहती हूं। उसने अनशन कर लिया। उसके मारणान्तिक समुद्घात हुआ। दोनों ने उसका शरीर ठंडा जानकर सोचा यह कालगत हो गई। परिष्ठापन हेतु एक ने उपकरण उठाये तथा दूसरे ने उसका पार्थिव शरीर उठाया और जंगल की ओर चल पड़े। मार्ग में शीतल हवा लगी वह थोड़ी-थोड़ी सचेत होने लगी। भाई के स्पर्श से उसके मन में विकार पैदा हो गया। दोनों भाईयों ने जंगल में उसका शरीर परिष्ठापन कर दिया और दोनों नगर में आ गए। रात्री में शीतल पवन के स्पर्श से वह पूर्ण सचेत हो गई। उठकर वह इधर-उधर घूमने लगी। प्रभात होते ही उसने एक सार्थवाह पुत्र को देखा। दोनों ने एक-दूसरे को देखा और एक दूसरे से
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