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कथा परिशिष्ट
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८६. वैद्यपुत्र राजवैद्य की मृत्यु के पश्चात् राजा ने वैद्य पुत्र की वृत्ति का निषेध कर दिया। वह वैद्यकशास्त्रवेत्ता नहीं था, अतः वह विदेश गया। एक वैद्य के पास रहा और वैद्य के मुख से एक पद्य सुना
पूर्वाह्ने वमनं दद्यादपराह्ने विरेचनम्। वातिकेष्वपि रोगेषु, पथ्यामाहुर्विशोषणम्॥
रोगी को पूर्वाह्न में वमन तथा अपराह्न में विरेचन कराना चाहिए। वातिक रोगों में भी विशोषण पथ्य होता है।
उसने सोचा-वैद्यकशास्त्र का यही सार है। वह अपने आपको कुशल वैद्य मानने लगा और स्वदेश लौट आया। राजा ने पुनः वृत्ति देना प्रारंभ कर दिया। एक दिन राजा की आज्ञा से वैद्यकपुत्र ने राजपुत्र की चिकित्सा में प्रवृत्त हुआ। उसने रोग का निदान किए बिना ही इस श्लोक के माध्यम से कालानुपाती वमन, विरेचन तथा विशोषण-तीनों क्रियाएं एक साथ की। राजकुमार मर गया। राजा ने अन्य वैद्यों से इलाज की जानकारी की। तब ज्ञात हुआ कि इलाज गलत होने के कारण राजकुमार मर गया। राजा ने वैद्य पुत्र को दंडित किया।
गा. ३२५९ वृ. पृ. ९१२
८७. आर्य स्कंदक
श्रावस्ती नगरी का राजा जितशत्रु था। उसके धारिणी नाम की रानी थी। उसके स्कंदक पुत्र और पुरंदरयशा पुत्री थी। उत्तरापथ में कुंभकारकर नगर में राजा दण्डकी के साथ पुरंदरयशा का विवाह हुआ। एक बार दण्डकी का पुरोहित पालक दूत के रूप में श्रावस्ती में आया। राजपरिषद् में शास्त्रार्थ के प्रसंग में स्कन्दक द्वारा पराजित पालक रुष्ट होकर अपने देश चला गया।
स्कंदक ५०० व्यक्तियों के साथ अर्हत् मुनि सुव्रत के साथ पास प्रव्रजित हुआ। एक दिन स्कंदक ने पूछा-भंते! क्या मैं इन ५०० साधुओं के साथ कुंभकारकर नगर में चला जाऊं? 'वहां मारणांतिक उपसर्ग होगा'-यह कहते हुए भगवान् ने उसे रोका। उसने पूछा-हम आराधक होंगे या विराधक। भगवान् ने कहा-तुम्हारे अतिरिक्त शेष सब आराधक होंगे। यह सुनकर स्कंदक चला, कुंभकारकर के एक उद्यान में ठहरा। __ उसे देखते ही पालक का पूर्व वैर जागा। उसने दण्डकी से कहा-यह मुनि आपके राज्य को हड़पने आया है। राजा को विश्वास नहीं हुआ, तब पालक ने उद्यान में स्वयं द्वारा छिपाये हुए आयुधों को दिखाया। क्रुद्ध राजा ने कहा-तुम जैसा चाहो, वैसा करो। पालक ने पुरुषयंत्र बनाकर सब साधुओं को पीलना शुरू किया। एक-एक करते ४९८ साधुओं को पीला दिया। एक छोटा साधु ही बाकी रहा। स्कंदक ने पालक से कहा-यंत्र में पहले मुझे डालो। पालक ने स्कंदक की बात अस्वीकार कर उसे बांध दिया। शिष्य के रक्त से अभिषिक्त स्कंदक ने अशुभ परिणामों से निदान कर दिया और वहां से मरकर भवनपतिदेवों में अग्निकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ। शिष्य सब आराधक हो गए।
भगिनी पुरंदरयशा ने अपने भ्राता मुनि को रत्नकंबल दिया था। जिसका रजोहरण बनाया गया था। बाज पक्षी ने रक्तरंजित रजोहरण को मांस का टुकड़ा समझ कर उठा लिया और वह संयोगवश पुरंदरयशा के सामने जा गिरा। उसे देखते ही वह आर्त्तस्वर में बोली-अरे! यह यहां कैसे? क्या मेरा भाई मारा गया? उसने राजा के सामने दुःख प्रकट किया। राजा ने पूरी जानकारी की किन्तु तब तक काफी देर हो चुकी थी।
अग्निकुमार ने पूर्वकृत निदान के फलस्वरूप संवर्तक वायु की विकुर्वणा कर जनपद सहित नगर को जला दिया और पुत्र-पत्नी सहित पालक को कुत्ते के साथ कुंभी में पकाया तथा सपरिवार पुरंदरयशा को अर्हत् समवसरण में पहुंचा दिया।
गा. ३२७१-३२७४ १. पृ. ९१६
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