Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 350
________________ ६७८ -बृहत्कल्पभाष्यम् मुनि भी छह मास तक तपस्या करते हैं। ये अठारह मास होते हैं। ६४७५.अणुपरिहारिगा चेव, जे य ते परिहारिगा। अण्णमण्णेसु ठाणेसु, अविरुद्धा भवंति ते॥ जो अनुपारिहारिक हैं और जो वे पारिहारिक हैं वे अन्यान्य स्थानों में कालभेद से परस्पर एक दूसरे का वैयावृत्य करते हुए अविरुद्ध ही होते हैं। ६४७६.गएहिं छहिं मासेहिं, निविट्ठा भवंति ते। ततो पच्छा ववहार, पट्ठवंति अणुपरिहारिया॥ ६४७७.गएहिं छहिं मासेहि, निविट्ठा भवंति ते। वहइ कप्पट्टितो पच्छा, परिहारं तहाविहं॥ वे पारिहारिक मुनि छह मास तक तपस्या वहन कर लेने पर निर्विष्टकायिक हो जाते हैं। तत्पश्चात् अनुपारिहारिक परिहारतप के व्यवहार-समाचार की स्थापना करते हैं। वे भी छह महीनों में निर्विष्ट हो जाते हैं। पश्चात् कल्पस्थित भी तथाविध परिहार का उतने ही महीनों तक वहन करता है। ६४७८.अट्ठारसहिं, मासेहिं, कप्पो होति समाणितो। मूलट्ठवणाए सम, छम्मासा तु अणूणगा। वह कल्प अठारह महीनों में समाप्त होता है। मूलस्थापना अर्थात् जो प्रथमतः परिहारतप स्वीकार करते हैं, वे अन्यून छहमास पर्यन्त उसका पालन करते हैं, इसी प्रकार अनुपरिहारिक तथा कल्पस्थित भी उसी के तुल्य छह-छह मास का तप वहन करते हैं। इस प्रकार ६४३१८ मास होते हैं। ६४७९.एवं समाणिए कप्पे, जे तेसिं जिणकप्पिया। तमेव कप्पं ऊणा वि, पालए जावजीवियं॥ इस प्रकार अठारह महीनों में कल्प समाप्त कर देने पर जो उनके मध्य जिनकल्पिक मुनि होते हैं वे उसी कल्प को अठारह मास न्यून भी यावज्जीवन तक पालन करते हैं। ६४८०.अट्ठारसेहिं पुण्णेहि, मासेहिं थेरकप्पिया। पुणो गच्छं नियच्छंति, एसा तेसिं अहाठिती॥ स्थविरकल्पिक मुनि अठारह मास पूर्ण होने पर पुनः गच्छ में आ जाते हैं। यह उनकी यथास्थिति है। ६४८१.तइय-चउत्था कप्पा, समोयरंति तु बियम्मि कप्पम्मि। पंचम-छट्ठठितीसुं, हेट्ठिल्लाणं समोयारो॥ तीसरा और चौथा कल्प (निर्विशमानक और निर्विष्टकायिक) दूसरे कल्प (छेदोपस्थापनीय) में समवतरित होते हैं। तथा सामायिक, छेदोपस्थानीय, निर्विशमानक, निर्विष्टकायिक ये चार अधस्तन स्थितियां मानी जाती हैं। इनका प्रत्येक का पांचवीं, छठी कल्प स्थिति में (जिनकल्प, स्थविरकल्प) में समवतार होता है। ६४८२.णिज्जुत्ति-मासकप्पेसु वण्णितो जो कमो उ जिणकप्पे। सुय-संघयणादीओ, सो चेव गमो निरवसेसो॥ पंचकल्प नियुक्ति के मासकल्प प्रकरण में जिनकल्पी के श्रुत, संहनन आदि का जो क्रम वर्णित है वही संपूर्ण क्रम यहां भी जानना चाहिए। ६४८३.गच्छम्मि य णिम्माया, धीरा जाहे य मुणियपरमत्था। अग्गह जोग अभिग्गहे, उविंति जिणकप्पियचरितं॥ जब गण में ही निष्पन्न, धीर, परमार्थ से अवगत अर्थात् यह जानकर कि अब उद्यतविहार करने का हमारा अवसर है, असंसृष्ट और संसृष्ट एषणाओं के ग्रहण का परिहार करने में तत्पर तथा इन एषणाओं को ही लेने का अभिग्रह रखते हुए तथा एक बार में एक का ही योग-परिभोग करने वाले होते हैं, वे ही जिनकल्पचारित्र स्वीकार करते हैं। ६४८४.धितिबलिया तवसूरा, णिति य गच्छातो ते पुरिससीहा। बल-वीरियसंघयणा, उवसग्गसहा अभीरू य॥ जो धृति से बलवान होते हैं, तपःशूर होते हैं, वे पुरुषसिंह गच्छ से निर्गत होते हैं। जो बल, वीर्य और संहननयुक्त होते हैं, उपसर्गों को सहने में सक्षम और अभीरू होते हैंवैसे पुरुष जिनकल्पस्थिति स्वीकार करते हैं। ६४८५.संजमकरणुज्जोवा, णिप्फातग णाण-दसण-चरित्ते। दीहाउ वुड्डवासो, वसहीदोसेहि य विमुक्का॥ स्थविरकल्पी मुनि संयम का यथावत् पालन करने वाले, प्रवचन के उद्योतक, शिष्यों का ज्ञान, दर्शन और चारित्र में निष्पादक, दीर्घायुष्क तथा जंघाबल से हीन होने पर वृद्धावास में रहने वाले तथा वसति दोषों से विप्रमुक्त होते हैं। ६४८६.मोत्तुं जिणकप्पठिइं, जा मेरा एस वण्णिया हेट्ठा। एसा तु दुपदजुत्ता, होति ठिती थेरकप्पस्स। जिनकल्पस्थिति को छोड़कर जो यह मर्यादा-स्थिति इसी अध्ययन में वर्णित है वह द्विपदयुक्त अर्थात् उत्सर्ग और अपवाद-इन दो पदों से युक्त स्थविरकल्प की स्थिति होती है। ६४८७.पलंबादी जाव ठिती, उस्सग्ग-ऽववातियं करेमाणे। अववाते उस्सगं आसायण दीहसंसारी॥ प्रलंबसूत्र से प्रारंभ कर इस षड्विधकल्पस्थितिसूत्र तक उत्सर्ग में आपवादिक क्रिया तथा अपवाद में उत्सर्ग क्रिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474