Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 371
________________ कथा परिशिष्ट ४२. दो म्लेच्छ दो म्लेच्छ पुरुषों ने राजा की सेवा कर उसे प्रसन्न किया। प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें दो बकरे और दो मधु घट दिए। दोनों ने इस पारितोषिक को स्वीकार किया। ___ एक म्लेच्छ ने बकरे को एक ही प्रहार में मार दिया और दो-तीन दिन तक उसके मांस का आस्वादन लिया। दूसरा प्रतिदिन एक अंग छेदन करता और खाता| बकरे के छेदे अंग पर नमक, मधु लगाता तथा उस स्थान को गोबर से लिप्स कर देता। पहले ने एक प्रहार में मारा, उसके एक बार हिंसा हुई। दूसरे ने जितनी बार प्रहार किया, छेदन किया उसके उतनी बार हिंसा का कर्मबंध हुआ। गा. ९८३ वृ. पृ. ३०९ ४३. अप्रशस्त-प्रशस्त किसान एक किसान ने ईख की खेती की। उसने खेत की सुरक्षा के लिए न खाई खोदी, न बाड़ लगाई, न गायों को रोका और न पथिकों को खाने से निषेध किया। गायों का निवारण नहीं करने से वे सारे खेत को चर गई और खेत नष्ट हो गया। पैदावार नहीं होने पर कर्मचारियों को वेतन भी नहीं दे सका। खेत के मालिक को हिस्सा नहीं मिला और स्वयं भी हानि को प्राप्त हुआ। ईख का पूरा खेत नष्ट हो गया। मालिक ने किसान को बांध दिया। वह विनाश को प्राप्त हुआ। किसी किसान ने ईख की खेती की। उसकी सुरक्षा के लिए खाई खोदी, बाड़ लगाई, गायों को चरने से रोका और पथिकों का निषेध किया। बहुत परिश्रम किया तो ईख की पैदावार अच्छी हुई। उसने कर्मचारियों को पूरा वेतन दिया। खेत के मालिक को उसका हिस्सा दे दिया। किसान को भी लाभ प्राप्त हुआ। गा. ९८८ १. पृ. ३१० ४४. अंतःपुर रक्षक एक राजा ने कन्याओं के अन्तःपुर की रक्षा के लिए एक व्यक्ति को रखा। वे राजकन्याएं गवाक्ष से इधरउधर देखती थीं। वह रक्षक उनका वर्जन नहीं करता था। धीरे-धीरे वे कन्याएं अग्रद्वार से बाहर जाने-आने लगीं। तब भी उसने निषेध नहीं किया। इस प्रकार के व्यवहार का वर्जन नहीं करने पर कुछ कन्याएं श्रेष्ठी पुत्रों से आलाप-संलाप करने लगी। कुछ कन्याएं भाग गई। अतः वह रक्षक कन्याओं के अन्तःपुर की रक्षा करने में असमर्थ रहा। अन्य राजा ने कन्याओं के अन्तःपुर की रक्षा के लिए रक्षक रखा। वह रक्षक किसी कन्या को वातायन से झांकते देखता तो वह सभी कन्याओं के समाने उसे डांटता और शिक्षा देता। शेष सारी कन्याएं भयभीत हो जाती। कोई वातायन तक जाने का साहस नहीं करती। वह अन्तःपुर की अच्छी रक्षा करने में समर्थ हुआ। गा. ९९१,९९२ वृ. पृ. ३११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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