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बृहत्कल्पभाष्यम् साधु द्वारा वन्दित होने पर साध्वी तुच्छत्व के कारण होता है। वे नाना प्रकार के दुःखों से भर्सित तथा शारीरिक
| जाती है। वह साधु का परिभव करने में शंका नहीं और मानसिक दुर्बलता के कारण परीषहों को सहन करने में करती, नहीं डरती। माधुर्यहार्य स्त्रियों में अन्य दोष भी होता अक्षम होते हैं। इसी प्रकार चरमतीर्थंकर के मुनियों के उत्कट है। वे मार्दव से ग्राह्य हो जाती हैं।
मान आदि का परिहार करने के लिए उन पर अनुशासन ६४०१.अवि य हु पुरिसपणीतो,
करना बहुत कष्टप्रद होता है। धम्मो पुरिसो य रक्खिउं सत्तो।। ६४०७.एए चेव य ठाणा, सुप्पण्णुज्जुत्तणेण मज्झाणं। लोगविरुद्धं चेयं,
सुह-दुह-उभयबलाण य, विमिस्सभावा भवे सुगमा।। तम्हा समणाण कायव्वं॥ ये ही आख्यान आदि स्थान मध्यम तीर्थंकरों के तथा जिनधर्म पुरुषों द्वारा प्रणीत है। पुरुष ही इसकी साधुओं के लिए सुगम हो जाते हैं। क्योंकि वे साधु सुप्रज्ञ रक्षा करने में समर्थ हैं। पुरुष द्वारा स्त्री को वंदना करना और ऋजु होते हैं। वे शारीरिक-मानसिक-दोनों शक्तियों से लोकविरुद्ध भी है। इसलिए श्रमणियों को चाहिए कि वे युक्त होते हैं, अतः सुख-दुःख को सहने में सक्षम होते हैं। श्रमणों को वंदना करें।
वे न एकान्ततः दान्त होते हैं और न उत्कट कषायित होते ६४०२.पंचायामो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। हैं। इस विमिश्रीभाव के कारण उन पर अनुशासन करना ___ मज्झिमगाण जिणाणं, चाउज्जामो भवे धम्मो॥ सुगम होता है।
प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के तीर्थ में पंचयाम धर्म ६४०८.पुव्वतरं सामइयं, जस्स कयं जो वतेसु वा ठविओ। अर्थात् पांच महाव्रतात्मक धर्म होता है। मध्यम तीर्थंकरों के
एस कितिकम्मजेट्ठो, ण जाति-सुततो दुपक्खे वी॥ तीर्थ में चतुर्याम धर्म होता है। .
जिस व्यक्ति पर सामायिक पहले आरोपित किया गया है ६४०३.पुरिमाण दुव्विसोज्झो, चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो। अथवा जिसको महाव्रतों में पहले स्थापित किया है, वह
मज्झिमगाण जिणाणं, सुविसोज्झो सुरणुपालो य॥ कृतिकर्मज्येष्ठ माना जाता है। न जन्मपर्याय के आधार पर प्रथम तीर्थंकर के साधुओं का कल्प दुर्विशोध्य होता है या श्रुत के आधार पर ज्येष्ठ माना जाता है। दोनों पक्षोंऔर अंतिम तीर्थंकर के साधुओं का कल्प दुरनुपाल्य होता संयतपक्ष और संयतीपक्ष में यही व्यवस्था है। है। मध्यम तीर्थंकरों के साधुओं का कल्प सुविशोध्य और ६४०९.सा जेसि उवट्ठवणा, जेहि य ठाणेहिं पुरिम-चरिमाणं। सुखानुपाल्य होता है।
___ पंचायामे धम्मे, आदेसतिगं च मे सुणसु॥ ६४०४.जड्डत्तणेण हंदि, आइक्ख-विभाग-उवणता दुक्खं। वह उपस्थापना जिनके होती है वे वक्तव्य हैं। प्रथम
सुहसमुदिय दंताण व, तितिक्ख अणुसासणा दुक्खं॥ और चरमतीर्थंकर के पंचयाम में स्थित साधुओं की जिन जड़ता के कारण प्रथम तीर्थंकर के मुनियों को वस्तुतत्त्व स्थानों में उपस्थापना होती है, उनमें स्थानों का उल्लेख का आख्यान करना, विभाग करना, उपनय अर्थात् हेतु भी करना चाहिए। जिनके उपस्थापना होती है, उनके दृष्टांतों से समझाना दुःशक्य होता है। वे साधु सुखों से विषय में तीन आदेश हैं-दस, छह और चार। वह समुदित होते हैं, अतः परीषहों को सहना उनके लिए दुष्कर आदेशत्रय मेरे से सुनो। होता है। वे स्वभावतः दान्त होते हैं, अतः उन पर अनुशासन ६४१०.तओ पारंचिया वुत्ता, अणवट्ठा य तिण्णि उ। करना कष्टप्रद होता है।
दंसणम्मि य वंतम्मि, चरित्तम्मि य केवले॥ ६४०५.मिच्छत्तभावियाणं, दुवियड्डमतीण वामसीलाणं। ६४११.अदुवा चियत्तकिच्चे, जीवकाए समारभे।
आइक्खिउं विभइउं, उवणेउं वा वि दुक्खं तु॥ सेहे दसमे वुत्ते, जस्स उवट्ठावणा भणिया। ६४०६.दुक्खेहि भत्थिताणं,
पहला आदेशतणु-धितिअबलत्तओ य दुतितिक्खं। १-३. पारांचिक-दुष्ट, प्रमत्त, अन्योन्य करने वाले। एमेव दुरणुसासं, .
४-६. अनवस्थाप्य-साधर्मिक, अन्यधर्मिक, स्तैन्यकारी। माणुक्कडओ य चरिमाणं॥ ७. जिसने संपूर्ण दर्शन-सम्यक्त्व को वान्त कर दिया है। चरम तीर्थंकर के साधु मिथ्यात्वभावित, दुर्विदग्ध ८. जिसने संपूर्ण चारित्र को वान्त कर दिया है। मतिवाले, वामशीलवाले होते हैं। उनको वस्तुतत्त्व का ९. अथवा त्यक्तकृत्य-संयम को त्यक्त कर जीवकाय का आख्यान करना, विभाग करना, उपनय से समझाना दुःखप्रद
समारंभ करने वाला।
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