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बृहत्कल्पभाष्यम
५६३८.एरवइ जम्हि चक्किय, जल-थलकरणे इमं तु णाणत्तं। उनमें भी जो बहुगुणतर है उससे गमन करना चाहिए।'
एगो जलम्मि एगो, थलम्मि इहई थलाऽऽगासं॥ संडेवक यह भी संक्रम का एक भेद है। उन तथा इतर ऐरावती नदी में एक पैर जल में और एक पैर स्थल में- संडेवकों से भी जाया जा सकता है। संडेवक का अर्थ है-ईंटे इस विधि से नदी को पार किया जा सकता है। इसमें यही आदि रखकर पार करना। नानात्व है कि पूर्वोक्त महानदियों में एक मास में दो-तीन बार ५६४३.नदिकोप्पर वरणेण व, थलमुदयं णोथलं तु तं चउहा। नहीं उतरा जा सकता। इसमें उतरा जा सकता है। यहां उवलजल वालुगजलं, सुद्धमही पंकमुदगं च॥ स्थान का अर्थ है-आकाश।
नदीकूर्पर मुड़ी हुई कोहनी की तरह नदी का मुड़ना। ५६३९.एरवइ कुणालाए, वित्थिण्णा अद्धजोअणं वहति। वरण-जल पर पालि बांधना। इनसे उदक का परिहार कर
कप्पति तत्थ अपुण्णे, गंतुं जा वेरिसी अण्णा॥ गमन करना स्थल है। नोस्थल चार प्रकार का हैकुणाला नगरी के निकट ऐरावती नदी बहती है। वह उपलजल-नीचे पाषाण ऊपर जल, बालुकाजल-नीचे आधी योजन विस्तीर्ण और अर्द्धजंघाप्रमाण ऊंडी है। बालुका ऊपर जल, शुद्धोदक-नीचे पृथ्वी ऊपर जल, ऋतुबद्ध काल में मासकल्प अपूर्ण होने पर उसमें से पंकोदक-नीचे कर्दम ऊपर जल। पंकोदक संबंधी ये तीन बार भिक्षा आदि के लिए यतनापूर्वक जाना-आना विधान हैंकल्पता है। अथवा ऐसी ही अन्य नदी में भी आना-जाना ५६४४.लत्तगपहे य खुलए, तहऽद्धजंघाए जाणुउवरिं च। कल्पता है।
लेवे य लेवउवरिं, अक्वंतादी उ संजोगा। ५६४०.संकम थले य णोथल, पासाणजले य वालुगजले य। जितने पैर पर अलक्तक लगाया जाता है उतनामात्र जिस
सुद्धदग पंकमीसे, परित्तऽणते तसा चेव॥ पथ में पंक हो वह लत्तकपथ है। इसी प्रकार खुलकनदी उतरने के तीन मार्ग हैं-संक्रम, स्थल और नोस्थल। पादपुंटक प्रमाण, अर्द्धजंघाप्रमाण, जानुप्रमाण, लेप-नाभिनोस्थल के चार प्रकार हैं
प्रमाण, उससे ऊपर सारा लेपोपरी पंक ये सारे कर्दम के (१) पाषाणजल (३) शुद्धोदक
भेद हैं। नोस्थल कर्दम के चारों प्रकारों में आक्रान्त(२) बालुकाजल
(४) पंकमिश्रितजल अनाक्रान्त, सभय-निर्भय आदि संयोग करने चाहिए। इस इन चारों से गमन करने से यथासंभव परीत्त, अनंतकाय । दोष से युक्त मार्ग का परिहार करना चाहिए। तथा त्रसजीव की विराधना होती है।
५६४५.जो वि य होतऽक्कतो, हरियादि-तसेहिं चेव परिहीणो। ५६४१.उदए चिक्खल्ल परित्त-ऽणंतकाइग तसे त मीसे त। तेण वि तु न गंतव्वं, जत्थ अवाया इमे होति।
अवंतमणक्वंते, संजोए होति अप्पबहं॥ जो भी मार्ग आक्रान्त होता है और जो हरित आदि तथा उदक में चिक्खल्ल होता है। वहां परीत्तकायिक और त्रस प्राणियों से परिहीन होता है, उससे भी नहीं जाना अनन्तकायिक जीव तथा त्रसकायिक जीव होते हैं। ये सारे चाहिए, क्योंकि वहां ये अपाय होते हैं। मिश्र-आक्रान्त-अनाक्रान्त, स्थिर-अस्थिर आदि होते हैं। ५६४६.गिरिनदि पुण्णा वाला-ऽहि-कंटगा दूरपारमावत्ता। उनके अल्पाबहुत्व में अनेक संयोग होते हैं।
चिक्खल्ल कल्लुगाणि य, गारा सेवाल उवला य॥ ५६४२.एगंगिय चल थिर पारिसाडि सालंब वज्जिए सभए। जिस मार्ग में गिरिनदी पूर्णवेग से बह रही हो, उसमें
पडिपक्खेसु त गमणं, तज्जातियरे व संडेवा।। व्याल-मकर आदि तथा सर्प, कंटक आदि हों, जिसका पार संक्रम के दो प्रकार हैं-एकांगिक और अनेकांगिक। एक दूर हो, जिसमें आवर्त हों, चिक्खल्ल हो, कल्लुक-जल फलक से बना हुआ एकांगिक तथा अनेक फलकों आदि से पाषाण पर होने वाले द्वीन्द्रिय प्राणी जो पैरों को छेद डालते बना हुआ अनेकांगिक। ये चल-स्थिर, परिशाटि-अपरिशाटि, हैं वे हों, गार-पाषाण की नोकें हों, सेवाल और उपल हों-ये सालंब-निरालंब, सभय-निर्भय होते हैं। प्रतिपक्ष से गमन सारे अपाय हैं। इन अपायों से वर्जित स्थलमार्ग से जाना अर्थात् अनेकांगिक, चल, परिशाटि, निरालंब, सभय इन चाहिए, उसके अभाव में संक्रमण से, उसके अभाव में पांच पदों के जो प्रतिपक्षी हों उनसे गमन करना चाहिए। नोस्थल से। १. अर्थात् एकांगिक, स्थिर, अपरिशाटी, सालंब, निर्भय-इनसे गमन करना चाहिए। २. संडेवक के दो प्रकार हैं-तज्जात और अतज्जात। स्वभावतः जात शिला आदि तज्जात और दूसरे स्थान से लाकर स्थापित ईंट, शिला आदि
अतज्जात (वृ. पृ. १४९३)
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