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छठा उद्देशक
कहता है, टोकता है तो अवमरानिक 'सत्प्रसारयति' मन में सोचता है कि मैं भी इस रात्निक को टोकूंगा। वह प्रयत्न करता है परंतु उसे रात्निक मुनि का वैसा छिद्र नहीं मिलता जिसके लिए वह कुछ कह सके।
६१३६. अत्रेण घातिए दद्दुरम्मि द चलणं कतं ओमो । उद्दवितो एस तुमे, ण मित्ति वितियं पि ते णत्थी ॥ एक बार रात्निक मुनि भिक्षाचर्या के लिए जा रहा था। मार्ग में एक दर्दुर मरा पड़ा था। उस पर रात्निक मुनि का पैर पड़ा। अवमरात्निक ने यह देख कर कहा- तुमने इस दर्दुर को मारा है। उसने कहा- मैंने नहीं मारा। तब अवमरात्निक बोला- तब तुम्हारे दूसरा व्रत मृषावादविरति भी नहीं है। उसके प्रायश्चित्तरचना यह है
६१३७. वच्चति भणाति आलोय निकाए पुच्छिते णिसिद्धे य साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणे ॥ ६१३८. मासो लहुओ गुरुओ,
चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लहु-गुरुगा,
छेदो मूलं तह दुगं च ॥ अवमरात्निक आचार्य के पास आता है, मासलघु कहता है - इसने दर्दुर को मारा, मासगुरु । गुरु रानिक को कहते हैं- आलोचना करो कि तुमने दर्दुर को मारा या नहीं ? रानिक ने आलोचना की मैंने नहीं मारा। ऐसा कहने पर अभ्याख्यानदाता के चतुर्लघु अवमरात्निक पुनः पूछता है, रात्निक वही दोहराता है। अवम के चतुर्गुरु । अवम कहता है गृहस्थों को पूछ लो उनको पूछने पर वे निषेध करते हैं। पूछने पर षड्लघु, निषेध करने पर षड्गुरु । साधु भी आकर कहते हैं- उसने नहीं मारा। अवम को छेद। अवम यदि कहता है कि गृहस्थ अलीक कहते हैं या सत्य ? उसको तब मूल अवम यदि कहता है-ये गृहस्थ और साधु मिले हुए हैं, तब उसे अनवस्थाप्य । यदि कहे ये सब प्रवचन के बाह्य है, तब पारांचिक
६१३९. किं आगओ सि णाहं, अडामि पाणवहकारिणा सद्धिं ।
सम्म आलोय ति य, जा तिष्णि तमेव वियडेति ॥ अवमरात्निक को अकेले आया हुआ देखकर गुरु ने पूछा- अकेले कैसे आ गए? उसने कहा मैं प्राणवधकारी के साथ घूमना नहीं चाहता। थोड़े समय बाद रात्निक भी आ गया। गुरु ने कहा- तुम सम्यग् आलोचना करो कि क्या तुमने किसी प्राणी का वध किया है या नहीं? उसने कहा- नहीं। तीन बार आलोचना करने पर भी उसने वही कहा। तब ज्ञात हो गया कि यह सत्य कह रहा है।
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६१४०. तुमए किर बहुरओ,
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ओति सोविय भणाति ण मए त्ति । तेण परं तु पसंगो,
धावति एक्के व बितिए वा ॥ तुमने दर्दुर को मारा है वह कहता है-मैंने नहीं मारा। इसके पश्चात् प्रायश्चित्त वृद्धि का प्रसंग आता है यह रात्निक के या अवमरात्निक के होता है। यदि रात्निक ने दर्दुर को मारा है और बार-बार कहने पर भी वह स्वीकार नहीं करता है तो उसके प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है। यदि अवमरात्निक उस अभ्याख्यान का बार-बार समर्थन करता है तो उसके प्रायश्चित्त की वृद्धि होती है।
६१४१. एक्स्स मुसावादो, काउं णिण्हाइणो दुवे दोसा ।
तत्य वि य अप्पसंगी, भवति य एको व एक्को वा ।। जो दूसरे पर अभ्याख्यान लगाता है उसके मृषावाद का दोष लगता है और जो दर्दुर का वध कर झुठलाता है। उसके दो दोष होते हैं-प्राणातिपात और मृषावाद । उसमें भी यदि अभ्याख्यान प्राणातिपात करने पर भी 'एक' अर्थात् अवमरात्निक तथा 'एक' अर्थात् रात्निक इनमें जो अप्रसंगी होता है उसके प्रायश्चित्त वृद्धि नहीं होती। इसका तात्पर्य है कि अभ्याख्यान देकर उसका निकाचन ( समर्थन) नहीं करता, वह तथा आरोप लगाए जाने पर भी जो रुष्ट नहीं होता, वह ये दोनों अप्रसंगी होते हैं, उनके प्रायश्चित्त वृद्धि नहीं होती। अभ्याख्याता यदि उसका बार-बार समर्थन नहीं करता तथा दूसरा भी बार-बार रुष्ट नहीं होता तो प्रायश्चित्त वृद्धि नहीं होती। यह वर्तुरविषयक प्रस्तार है। इसी प्रकार शुनक, सर्प और मूषकविषयक प्रस्तार जानने चाहिए।
६१४२. मोसम्म संखडीए, मोयगगहणं अदत्तदाणम्मि । आरोवणपत्यारो, तं चैव इमं तु णाणत्तं ॥ मृषावाद में संखड़ी का अदत्तादान में मोदकग्रहण का उदाहरण है। इन दोनों का आरोपणा प्रायश्चित्त का प्रस्तार ही जानना चाहिए। यह नानात्व है। ६१४३, वीण कलुणेहि जायति,
पडिसिद्धां विसति एसणं हणति । जंपति मुहप्पियाणि य,
जोग - तिगिच्छा-निमित्तानं ॥ साधु ने आचार्य से कहा-अमुक रात्निक मुनि संखड़ी में जाकर दीन और करुणवचनों से याचना करता है, प्रतिषिद्ध होने पर भी भीतर प्रवेश करता है, एषणा का हनन करता है, घर में प्रवेश कर मुखप्रियवचन बोलता है तथा योग,
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