Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 341
________________ = ६६९ गल छठा उद्देशक व्यक्ति को देखकर लोग वस्त्र होने पर भी, उसको नग्नक कहते हैं। परिजीर्ण वस्त्र को धारण किए हुए एक स्त्री ने जुलाहे से कहा है-'हे तन्तुवाय! मैं नग्निका हूं। शीघ्रता कर। मुझे शाटिका दे। ६३६७.जुन्नेहिं खंडिएहि य, असव्वतणुपाउतेहिं ण य णिच्चं। संतेहिं वि णिग्गंथा, अचेलगा होति चेलेहि।। जीर्ण, खंडित, शरीर को पूर्ण रूप से प्रावृत न कर सकने वाले वस्त्रों तथा जो सदा शरीर को प्रावृत न करने वाले किन्तु यदा-कदा विशेष ऋतु में प्रावृत करने वाले वस्त्रों के होते हुए भी निर्ग्रन्थ अचेलक होते हैं। ६३६८.एवं दुग्गत-पहिता, अचेलगा होति ते भवे बुद्धी। ते खलु असंततीए, धरति ण तु धम्मबुद्धीए। __तो तुम यह सोचते हो कि इस प्रकार के जो दुर्गतपथिक होते हैं वे अचेलक होते हैं। देखो, वे दुर्गतपथिक वस्त्रों की असंप्राप्ति के कारण वैसे जीर्ण वस्त्र धारण करते हैं, धर्मबुद्धि से नहीं, अतः वे अचेलक नहीं कहे जा सकते। ६३६९.आचेलक्को धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमगाण जिणाणं, होति अचेलो सचेलो वा॥ प्रथम और अंतिम जिनेश्वर के तीर्थ में आचेलक्य धर्म होता है। मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थ में अचेल और सचेल-दोनों प्रकार के धर्म होते हैं। ६३७०.पडिमाए पाउता वा, णऽतिक्कमंते उ मज्झिमा समणा। पुरिम-चरिमाण अमहद्धणा तु भिण्णा इमे मोत्तुं॥ मध्यम तीर्थंकरों के श्रमण प्रतिमा अर्थात् नग्न या प्रावृत-सवस्त्र रहकर भी भगवान् की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। प्रथम और चरम तीर्थंकर के श्रमण स्वल्पमूल्यवाले और भिन्नवस्त्रों (अकृत्स्न वस्त्रों) को धारण करते हैं। निम्नोक्त कारणों को छोड़कर अर्थात् इन कारणों का अपवाद है। ६३७१.आसज्ज खेत्तकप्पं, वासावासे अभाविते असह। काले अाणम्मि य, सागरि तेणे व पाउरणं॥ क्षेत्रकल्प अर्थात् देशविशेष के आचार के अनुसार अभिन्नवस्त्र धारण करना। वर्षावास में, अभावित अवस्था में, असहिष्णु अवस्था में, प्रत्यूष काल में, मार्ग में, सागारिकप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहते हुए, स्तेन की आशंका से उत्कृष्ट उपधि कंधों पर रखकर पूरे शरीर को प्रावृत कर मार्ग में जा सकते हैं। ६३७२.निरुवहय लिंगभेदे, गुरुगा कप्पति तु कारणज्जाए। गेलण्ण लोय रोगे, सरीरवेतावडितमादी॥ निरुपहत अर्थात् नीरोग व्यक्ति द्वारा लिंगभेद करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। अथवा निरुपहत का अर्थ है-यथाजातलिंग। उसका भेद करने पर चतुर्गुरू। द्वितीयपद है कारण में लिंगभेद भी करना कल्पता है। कारण ये हैं-ग्लानत्व, लोच, रोगी, शरीरवैयावृत्य-मृतसंयतशरीर का नीहरण करना। ६३७३.खंधे दुवार संजति, गरुलऽद्धंसे य पट्ट लिंगदुवे। लहुगो लहुगो लहुगा, तिसु चउगुरु दोसु मूलं तु॥ लिंगभेद के ये भेद हैं कंधे पर कल्प रखने पर मासलघु, शीर्षद्वारिका करने पर मासलघु, संयती प्रावरण करने पर चतुर्लघु, गरुड़पाक्षिक की भांति प्रावरण करने पर, अर्धांस करने पर, कटीपट्टक बांधने पर-इन तीनों में चतुर्गुरु, गृहस्थलिंग या परलिंग करने पर मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ६३७४.असिवे ओमोयरिए, रायडुढे व वादिदुढे वा। आगाढ अन्नलिंगं, कालक्खेवो व गमणं वा॥ अशिव में, अवमौदर्य में, राजद्विष्ट होने पर, वादिद्विष्ट होने पर, आगाढ़ कारण होने पर-इन कारणों से अन्यलिंग कर कालक्षेप या गमन कर देना चाहिए। ६३७५.आहा अधे य कम्मे, आयाहम्मे य अत्तकम्मे य। तं पुण आहाकम्म, कप्पति ण व कप्पती कस्स। नं आधाकर्म, अधःकर्म, आत्मघ्नं, आत्मकर्म-ये आधाकर्म के एकार्थक हैं। यह आधाकर्म किसको ग्रहण करना कल्पता है और किसको नहीं कल्पता? ६३७६.संघस्सोह विभाए, समणा-समणीण कुल गणे संघे। कडमिह ठिते ण कप्पति, अट्ठित कप्पे जमुहिस्स। इसकी विस्तृत व्याख्या तीसरे उद्देशक में की जा चुकी है। यहां संक्षेप में कहा जा रहा है-ओघतः या विभागतः श्रमण-श्रमणी के कुल का, गण का, संघ का संकल्प कर जो भक्तपान किया जाता है, वह स्थितकल्प साधु-साध्वियों को नहीं कल्पता। जो अस्थित-कल्प में स्थित हैं उनमें से जिसके उद्देश्य से कृत होता है, उस एक को नहीं कल्पता, दूसरों को कल्पता है। ६३७७.आयरिए अभिसेए, भिक्खुम्मि गिलाणगम्मि भयणा उ। तिक्खुत्तऽडविपवेसे, चउपरियट्टे ततो गहणं॥ आचार्य, अभिषेक, भिक्षु के ग्लान हो जाने पर आधाकर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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