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कप्पद्विति-पदं
छव्विहा कप्पट्टिती पण्णत्ता, तं जहासामाइय-संजयकप्पट्टिती, छेदोवठ्ठावणियसंजयकप्पद्विती, निव्विसमाणकप्पद्विती, निविट्ठकाइयकप्पद्विती, जिणकप्पट्टिती, थेरकप्पट्टिति॥
-त्ति बेमि॥
(सूत्र २०)
छठा उद्देशक पांच प्रकार के परिमंथु के जो द्वितीयपद प्राप्त होते हैं उनकी यथायोग्य योजना करनी चाहिए। ६३४३.जा सालंबणसेवा, तं बीयपदं वयंति गीयत्था।
आलंबणरहियं पुण, निसेवणं दप्पियं बेति॥ निदान में द्वितीयपद क्यों नहीं?
जो सालंबन प्रतिसेवना (ज्ञान आदि आलंबनयुक्त) है, गीतार्थ मुनि उसको द्वितीयपद कहते हैं। आलंबनरहित प्रतिसेवना को दर्पिका कहते हैं। निदानकरण में वह कोई आलंबन नहीं होता। ६३४४.एवं सुनीहरो मे, होहिति अप्प त्ति तं परिहरंति। ___ हंदि! हु णेच्छंति भवं, भववोच्छित्तिं विमग्गंता॥
कोई व्यक्ति यह अवधारणा करता है कि मैं यदि दरिद्रकुल में उत्पन्न होऊंगा तो मेरा उससे सुनिर्हार-निर्गम सहज हो जाएगा, मैं सुगमता से संयम ले सकूँगा ऐसे निदान का भी साधु परिहार करते हैं क्योंकि निदान करने से भवों की वृद्धि होती है। साधु भवव्यवच्छित्ति की मार्गणा करते हैं, वे भव की इच्छा नहीं करते। ६३४५.जो रयणमणग्घेयं, विकिज्जऽप्पेण तत्थ किं साहू।
दुग्गयभवमिच्छंते, एसो च्चिय होति दिटुंतो।। जो बहुमूल्य रत्न को अल्पमूल्य में बेच देता है क्या वह अच्छा है? दरिद्र के भव की वांछा करने वालों के लिए यही दृष्टान्त उपयुक्त होता है। ६३४६.संगं अणिच्छमाणो, इह-परलोए य मुच्चति अवस्सं।
एसेव तस्स संगो, आसंसति तुच्छतं जं तु॥ ___ जो इहलोक और परलोक के संग की इच्छा नहीं करता वह अवश्य ही मुक्त होता है। यही उसका संग है कि वह महान् फलदाता तपस्या के द्वारा तुच्छ फल की आशा करता है। ६३४७.बंधो त्ति णियाणं ति य, आससजोगो य होंति एगट्ठा।
ते पुण ण बोहिहेऊ, बंधावचया भवे बोही॥ बंध, निदान और आशंसायोग-ये एकार्थक हैं। ये बोधि के हेतु नहीं है। बोधि प्राप्त होती है बंध के अपचय से अर्थात् कर्मबंध की निर्जरा से। ६३४८.नेच्छंति भवं समणा, सो पुण तेसिं भवो इमेहिं तु।
पुव्वतव-संजमेहिं, कम्मं तं चावि संगणं॥ श्रमण भव-जन्म-मरण की वांछा नहीं करते। उनका भव (देव भव) सरागसंयम से होता है। इस प्रकार पूर्वसंयम, तप से कर्मबंध होता है। कर्मबंध का कारण है-संग (संज्वलन क्रोध आदि)
६३४९.पलिमंथविप्पमुक्कस्स होति कप्पो अवट्टितो णियमा।
कप्पे य अवट्ठाणं, वदंति कप्पद्वितिं थेरा॥ कल्पस्थिति-परिमंथ विप्रमुक्त मुनि के नियमतः अवस्थितकल्प होता है। जो कल्प में अवस्थान है, उसी को स्थविर मुनि कल्पस्थिति कहते हैं। ६३५०.आहारो त्ति य ठाणं, जो चिट्ठति सो ठिइ त्ति ते बुद्धी।
ववहार पडुच्चेवं, ठिइरेव तु णिच्छए ठाणं ।। कल्प का अर्थ है-आधार अर्थात् स्थान। जो कल्प में स्थित होता है वह स्थिति है। तुम ऐसा सोच सकते हो कि स्थिति और स्थान-दोनों का परस्पर अन्यत्व हो गया। व्यवहारनय की अपेक्षा से स्थान और स्थिति का अन्यत्व है
और निश्चयनय की अपेक्षा स्थिति ही स्थान है। ६३५१.ठाणस्स होति गमणं, पडिवक्खो तह गती ठिईए तु।
एतावता सकिरिए, भवेज्ज ठाणं व गमणं वा।। सक्रिय जीव की इतनी ही क्रिया है-स्थान और गमन। स्थान का गमन प्रतिपक्ष है और स्थिति का गति प्रतिपक्ष है। ६३५२.ठाणस्स होति गमणं, पडिपक्खो तह गती ठिईए उ।
ण य गमणं तु गतिमतो, होति पुढो एवमितरं पि॥ स्थान का गमन प्रतिपक्ष होता है स्थिति नहीं तथा स्थिति का गति प्रतिपक्ष होता है स्थान नहीं। इस प्रकार स्थिति और स्थान का एकत्व है। गमन गतिमान् से पृथग नहीं होता और स्थान भी स्थितिमान् से पृथग नहीं होता। ६३५३.जय गमणं तु गतिमतो,
होज्ज पुढो तेण सो ण गच्छेज्जा। जह गमणातो अण्णा,
ण गच्छति वसुंधरा कसिणा॥ यदि गमन गतिमान् से पृथक् हो तब गतिमान् उससे (गमन से) नहीं जा सकता। जैसे-सारी पृथ्वी गमन
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