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छठा उद्देशक
६६३ बहुजन विज्ञात हो तो स्थापत्यापुत्र के उदाहरण के द्वारा उन्हें वर्ष हीन या दो वर्ष हीन धर्म हमें दे दो। बात होते होते जब समझाए।
वे कहे-इसने जो एक दिन में धर्म किया है, वह हमें दे दो। ६३०४.सरभेद वण्णभेदं, अंतद्धाणं विरेयणं वा वि। तब उन्हें कहे-इसने तुम्हारा जितना लिया है वह मुहूर्त ___वरधणुग पुस्सभूती, गुलिया सुहमे य झाणम्मि॥ आदि धर्म से तुलनीय है। उतना हम देंगे। यदि वे इसे
तब उसका गुटिका के प्रयोग से स्वरभेद, वर्णभेद कर स्वीकार करते हैं तब विद्या से तुला का स्तंभन कर कहना देते हैं, उसे अन्यग्राम में भेजकर अन्तर्धान कर देते हैं, चाहिए क्षणमात्र धर्म से भी नहीं तोला जा सकता। विरेचन आदि देकर ग्लान बना देते हैं-यह सारा देखकर वह धर्मतोलन धर्माधि-करणिक-नीति शास्त्र प्रसिद्ध है। उसे छोड़ देता है। अथवा वरधनु और पुष्यभूति आचार्य क्षणमात्रकृत धर्म का लाभ पाने के लिए तप ग्रहण करना सूक्ष्म ध्यान में प्रवेश कर मृतवत् हो गए। यह देखकर उनको आवश्यक है। वे तपग्रहण करना न चाहें तो कहे-यह छोड़ दिया।
साध्वी वणिग्न्याय से शुद्ध है। ६३०५.पासंडे व सहाए, गिण्हति तुज्झं पि एरिसं अत्थि। ६३०९.वत्थाणाऽऽभरणाणि य, सव्वं छड्डेउ एगवत्थेणं।
होहामो य सहाया, तुब्भ वि जो वा गणो बलितो॥ पोतम्मि विवण्णम्मि, वाणितधम्मे हवति सुद्धो।। पाषंडों को अपना सहायक बनाले। उनको कहे- वणिग्न्याय-एक वणिग् वस्त्रों और आभरणों को जहाज तुम्हारे भी जब ऐसा ही प्रयोजन उपस्थित होगा तब हम में भरकर चला। उसने अनेक व्यक्तियों से प्रभूत ऋण ले भी तुम्हारे सहायक बनेंगे। अथवा जो गण बलवान् हो रखा था। मार्ग में जहाज टूट गया। तब उसने पोतगत सारा उसकी सहायता ले। (उस समय मल्लगण, सारस्वतगण सामान छोड़कर स्वयं एक वस्त्र पहन कर तैर कर बाहर बलवान् थे।)
आया। वह वणिग्धर्म में शुद्ध होता है। इसी प्रकार यह साध्वी ६३०६.एएसिं असतीए, संता व जता ण होति उ सहाया। भी सबकुछ त्याग कर निष्क्रान्त हुई है, यह वणिग्धर्म से
ठवणा दूराभोगण, लिंगेण व एसिउं देंति॥ शुद्ध है। यह न अपना ऋण किसी से मांगती है और न इसका इन पाषंडों और गणों के अभाव में अथवा होने पर भी ये किसी को देना होता है। सहायक न बनते हों तो निष्क्रमण के समय जो द्रव्य स्थापित ६३१०.तम्हा अपरायत्ते, दिक्खेज्ज अणारिए य वज्जेज्जा। किया था, उससे उसको दासत्व से मुक्त कराए। अथवा अद्धाण अणाभोगा, विदेस असिवादिसू दो वी॥ दूरस्थ निधि के आभोग से अथवा अर्चित लिंग धारण कर इसलिए परायत्त को दीक्षा देना और अनार्य देश में धन की एषणा कर-उत्पादन कर वृषभ मुनि उसको देकर जाना इसका वर्जन करे। इसमें अपवाद यह है-यात्रा के मुक्त कराए।
समय, अनाभोग अर्थात् अज्ञातदशा में, विदेश में अथवा ६३०७.एमेव अणत्ताए, तवतुलणा णवरि तत्थ णाणत्तं।। अशिव आदि में दीक्षा भी दी जा सकती है और अनार्य देश
बोहिय-तेणेहि हिते, ठवणादि गवेसणे जाव॥ में भी विहार किया जा सकता है। इसी प्रकार ऋणार्ता को मुक्त कराने के लिए धनदान में
__ पलिमंथू-पदं नानात्व है। वह है-तपस्तुलना। साध्वी को बोधिकों या स्तेनों द्वारा अपहरण हो जाने पर उसकी गवेषणा करनी चाहिए
छ कप्पस्स पलिमंथू पण्णत्ता, तं तथा पूर्वोक्त अर्थजात की स्थापना विधि तक अपनानी
जहा कोक्कुइए संजमस्स पलिमंथू, चाहिए। (तपस्तुलना का तात्पर्य है-बोधिक या स्तेन द्रव्य
मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथू, की मांग करे तो उनको कहना चाहिए-हम साधु तपोधन हैं। हमारे पास न सुवर्ण है और न हिरण्य। हमारे पास धर्म है।
चक्खुलोलुए इरियावहियाए पलिमंथू,
तितिणिए एसणागोयरस्स पलिमंथू, तुम भी धर्म ग्रहण करो।) ६३०८.जो णाते कतो धम्मो, तं देउ ण एत्तियं समं तुलइ।
इच्छालोभिए मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू, ____ हाणी जावेगाहं, तावतियं विज्जथंभणता॥
भिज्जानियाणकरणे मोक्खमग्गस्स यदि वे कहें-इस साध्वी ने जो धर्म किया है, वह सारा पलिमंथू। सव्वत्थ भगवता अनियाणया हमें दो। तब साधु कहे-इसके साथ इतने धर्म को नहीं पसत्था॥ तोला जा सकता नैतावत् समं तुलति। तब वे बोले-एक
(सूत्र १९)
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