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= बृहत्कल्पभाष्यम् ६३११.दप्पेण जो उ दिक्खेति एरिसे एरिसेसु वा विहरे। द्रव्यपरिमंथ मंथिक है, मन्थान है। इससे जैसे दही मथा
तत्थ धुवो पलिमंथो, को सो कतिभेद संबंधो॥ जाता है वैसे ही दधितुल्य जो कल्प-साधु समाचार है वह जो आचार्य दर्प से ऐसे परायत्त को दीक्षित करता है कौत्कुच्य आदि परिमंथों से मथा जाता है, विनष्ट किया अथवा जो अनार्य देशों में दर्प से विहरण करता है, वहां जाता है। निश्चित ही परिमंथ होता है। परिमंथ क्या है और उसके ६३१७.कोकुइओ संजमस्स उ, मोहरिए चेव सच्चवयणस्स। कितने भेद हैं?
इरियाए चक्खुलोलो, एसणसमिईए तितिणिए। ६३१२.अहवा सव्वो एसो, कप्पो जो वण्णिओ पलंबादी। ६३१८.णासेति मुत्तिमग्गं, लोभेण णिदाणताए सिद्धिपहं।
तस्स उ विवक्खभूता, पलिमंथा ते उ वज्जेज्जा॥ एतेसिं तु पदाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं। अथवा जो यह सारा प्रलंब आदि का कल्प-समाचार संयम का परिमंथ है कौत्कुचिक, सत्यवचन का है वर्णित है उस कल्प का विपक्षीभूत परिमंथ होते हैं उनका मौखरिक, ईर्यासमिति का है चक्षु की लोलुपता, एषणावर्जन करना चाहिए।
समिति का है तिन्तिणिक ये परिमंथु है। लोभ से मुक्तिमार्ग ६३१३.आइम्मि दोन्नि छक्का, अंतम्मि य छक्कगा दुवे हुँति। का, निदानता से सिद्धिपथ का नाश होता है। इन प्रत्येक पदों
सो एस वइरमज्झो, उद्देसो होति कप्पस्स॥ की मैं प्ररूपणा कहूंगा। __ इस छठे उद्देशक की आदि में दो षट्क-भाषा-षट्क ६३१९.ठाणे सरीर भासा, तिविधो पुण कुक्कुओ समासेणं। और प्रस्तारषट्क आए हैं और अन्त में भी दो
चलणे देहे पत्थर, सविगार कहक्कहे लहुओ॥ षट्क-परिमंथषट्क और कल्पस्थितिषट्क आए हैं। इसलिए ६३२०.आणाइणो य दोसा, विराहणा होइ संजमा-ऽऽयाए। यह कल्पोद्देशक का वज्रमध्य है। वज्र की भांति आदि-अंत
जंते व णट्टिया वा, विराहण मइल्लए सुत्ते॥ में विस्तीर्ण और मध्य में संक्षिप्त होता है। आद्य षट्कद्वय कौत्कुचिक संक्षेप से तीन प्रकार का है-शरीर पहले कहा जा चुका है, अब अन्त्य षट्कद्वय बताया जा विषयक, स्थानविषयक और भाषाविषयक। स्थानरहा है।
कौत्कुचिक स्थान से बार-बार भ्रमण करना। शरीर ६३१४.पलिमंथे णिक्खेवो, णामा एगट्ठिया इमे पंच।। कौत्कुचिक-हाथ आदि से पत्थर आदि फेंकना। भाषा
पलिमंथो वक्खेवो, वक्खोड विणास विग्यो य॥ कौत्कुचिक-सविकार बोलना, अट्टहास करना। इन तीनों में परिमंथ निक्षेप के चार प्रकार हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य प्रायश्चित्त है मासलघु, आज्ञाभंग आदि दोष तथा और भाव। उसके एकार्थक ये पांच हैं-परिमंथ, व्याक्षेप, संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। यंत्र तथा व्याखोट, विनाश और विघ्न।
नर्तिका की भांति स्थान और शरीर को जो घूमाता है, ६३१५.करणे अधिकरणम्मि य,
वह कौत्कुचिक होता है। जो जोर से हंसता है, उसके कारग कम्मे य दव्वपलिमंथो। मुंह आदि में मक्खी प्रवेश कर सकती है। उससे विराधना एमेव य भावम्मि वि,
होती है। इस प्रसंग में मृतदृष्टांत और सुस-दृष्टांत-ये दो चउसु वि ठाणेसु जीवे तु॥ दृष्टांत है। द्रव्य परिमंथ के चार प्रकार हैं-करण, अधिकरण, कारक ६३२१.आवडइ खंभकुड्डे, अभिक्खणं भमति जंतए चेव। और कर्म। करण–जिस मन्थान आदि से दही मथा जाता है, कमफंदण आउंटण, ण यावि बद्धासणो ठाणे॥ अधिकरण-जिस पृथ्वीकाय निष्पन्न मथनी में दही मथा जाता जो बैठा-बैठा या खड़ा-खड़ा स्तंभ और भीत से है, कर्ता-जो स्त्री या पुरुष दही मथता है। कर्म-मथने से जो जा टकराता है, यंत्र की भांति बार-बार भ्रमण करता है, नवनीत निकलता है। इसी प्रकार भावविषयक परिमंथ के भी पैरों का स्पन्दन तथा आकुंचन करता है तथा एक चार प्रकार हैं-करण कौत्कुच्य आदि से संयम को मथना, स्थान पर बद्धासन होकर नहीं बैठता। वह स्थान अधिकरण आत्मा में संयम को मथना, कर्ता-साधु-साध्वी कौत्कुचिक होता है। परिमंथ के द्वारा संयम का मंथन करना, कर्म-संयम को मथने ६३२२.संचारोवतिगादी, संजमे आयाऽहि-विच्चुगादीया। पर असंयम निष्पन्न होता है।
दुब्बद्ध कुहिय मूले, चडप्फडते य दोसा तु॥ ६३१६.दव्वम्मि मंथितो खलु, तेणं मंथिज्जए जहा दधियं। जो स्थानकौत्कुचिक होता है उसके ये दोष होते हैं-भीतों
दधितुल्लो खलु कप्पो, मंथिज्जति कोकुआदीहिं॥ पर संचरणशील उद्देशिका, मंथु, कीटिका आदि जीवों की
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