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=बृहत्कल्पभाष्यम्
जो साध्वी भूतप्रयुक्त असमंजस प्रलापों से यक्षावेशन से पीड़ित है उसकी भूतचिकित्सा करनी चाहिए। उस भूत (यक्ष) का नीच या उत्तम भाव स्वयं जानकर अथवा अन्य मांत्रिक से जानकर उसकी पूर्वोक्त क्रिया-चिकित्सा करनी चाहिए। यक्षाविष्ट साध्वी उन्माद को प्राप्त हो जाती है।
उम्मायपत्तं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे वा अवलंबमाणे वा नाइक्कमइ॥
(सूत्र १३)
६२५७.अहवा भय-सोगजुया,
चिंतद्दण्णा व अतिहरिसिता वा। आविस्सति जक्खेहि,
अयमण्णो होइ संबंधो॥ अथवा जो भय और शोकयुक्त होती है, चिंता से पीड़ित होती है वह क्षिप्तचित्त है और जो अतिहर्षित होती है वह दीप्तचित्त होती है। इन दोनों में यक्ष आविष्ट हो जाते हैं। पूर्वसूत्र से यह अन्य संबंध है। ६२५८.पुव्वभवियवेरेणं, अहवा राएण राइया संती।
एतेहिं जक्खइट्ठा, सवत्ति भयए य सन्झिलगा। यक्षाविष्ट होने के दो मुख्य कारण हैं-पूर्वभविकवैर से तथा रागभाव से रंजित होने पर। पूर्वभविकवैर विषयक सपत्नी का दृष्टांत है तथा राग विषयक दो दृष्टांत हैं-भृतक का और सहोदरभाई का। ६२५९.वेस्सा अकामतो णिज्जराए मरिऊण वंतरी जाता।
पुव्वसवत्तिं खेत्तं, करेति सामण्णभावम्मि॥ एक सेठ के दो पत्नियां थीं। एक प्रिय थी और दूसरी अप्रिय-द्वेष्य। अप्रिय पत्नी अकामनिर्जरा से मरकर व्यंतरी हुई। प्रिय पत्नी प्रव्रजित हो गई। व्यंतरी ने श्रामण्यभाव में रमण करने वाली अपनी पूर्वसपत्नी को, पूर्वभविकवैर का अनुस्मरण कर उसे क्षिप्त अर्थात् यक्षाविष्ट कर डाला। ६२६०.भयतो कुडंबिणीए, पडिसिद्धो वाणमंतरो जातो।
सामण्णम्मि पमत्तं, छलेति तं पुव्ववेरेणं॥ एक भृतक कुटुम्बिनी में आसक्त हो गया। कुटम्बिनी ने प्रतिषेध किया। वह मरकर वानव्यंतर देव बना। वह कुटुम्बिनी प्रव्रजित हो गई। उसे श्रामण्य में प्रमत्त जानकर पूर्ववैर के कारण वानव्यंतर देव ने उसको छला। उसे क्षिप्त कर दिया। ६२६१.जेट्ठो कणेट्ठभज्जाए मुच्छिओ णिच्छितो य सो तीए।
जीवंते य मयम्मी, सामण्णे वंतरो छलए॥ बड़ा भाई छोटे भाई की भार्या में मूञ्छित हो गया। उसने उसको नहीं चाहा और कहा-तुम्हारा भाई जीवित है, क्या तुम इसको नहीं देखते? तब बड़े भाई ने सोचा-जब तक छोटा भाई जीवित है, तब तक यह मेरी नहीं होगी? अतः उसको मार डालना ही उचित है। उसे मार डाला। पत्नी प्रव्रजित हो गई। बड़ा भाई वियोग में मरकर व्यंतर हुआ। वह पूर्वभविक वैर के कारण उसको ठगने लगा। उसे यक्षाविष्ट करने लगा। ६२६२.तस्स य भूततिगिच्छा, भूतरवावेसणं सयं वा वि।
णीउत्तमं च भावं, णाउं किरिया जहा पुव्वं ।।
६२६३.उम्मातो खलु दुविधो, जक्खाएसो य मोहणिज्जो य।
जक्खाएसो वुत्तो, मोहेण इमं तु वोच्छामि॥ उन्माद के दो प्रकार हैं-यक्षावेश और मोहनीय। यक्षावेश के विषय में पहले बताया जा चुका है। मोह से होने वाले उन्माद के विषय में बताऊंगा। ६२६४.रूवंगं दट्टणं, उम्मातो अहव पित्तमुच्छाए।
तद्दायणा णिवाते, पित्तम्मि य सक्करादीणि॥ रूपांग और गुह्यांग देखकर अथवा पित्तमूर्छा से उन्माद होता है। रूपांग को देखकर होने वाले उन्माद के प्रतिकार के लिए रूपांग की विरूपावस्था का दर्शन कराना चाहिए। जो वायु के द्वारा उन्मादप्राप्त है, उसे निवात में रखना चाहिए
और जो पित्त के कारण उन्मत्त है तो उसे शर्करा आदि पिलानी चाहिए। ६२६५.दट्ठण नडं काई, उत्तरवेउव्वितं मतणखेत्ता।
तेणेव य रूवेणं, उड्डम्मि कयम्मि निविण्णा॥ कोई साध्वी उत्तरवैक्रयिक नट को देखकर मदनक्षिप्त अर्थात् उन्माद को प्राप्त हो सकती है। नट को स्वाभाविक रूप से दिखाने अथवा उसको वमन करते हुए दिखाने पर वह साध्वी उसके विषय में विरक्त हो जाती है। ६२६६.पण्णवितो उ दुरूवो, उम्मंडिज्जति अ तीए पुरतो तु।
रूववतो पुण भत्तं, तं दिज्जति जेण छड्डेति॥ यदि वह नट स्वभावतः कुरूप हो तो उसे उन्मादप्राप्त साध्वी के सम्मुख लाकर उसके सारे मंडन को उतारा जाता है। उसको विरूप देखकर विराग हो जाता है। यदि वह नट स्वभाव से रूपवान् हो तो उसे मदनफल का भक्त दिया जाता है। ज्योंही वह साध्वी के समक्ष आता है, उसे वमन होने लगते हैं। वह निर्विण्ण हो जाती है। ६२६७.गुज्झंगम्मि उ वियडं, पज्जावेऊण खरगमादीणं।
तहायणे विरागो, तीसे तु हवेज्ज दह्णं॥
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